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________________ wiriwwwwwwwwwwwww ३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सहस्साणि । एदेसिमपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्ताणं च पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । ४७. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मोह० जहण्णाणु० ज० उक्क० एगस० । अज० ज० खुदाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुत्तेणन्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं ।। ४८. कायाणुवादेण पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० जहण्णाणु० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरपुढवि-बादरआउ०-बादरतेउ०-बादरवाउ० जहण्णाणु० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० कम्महिदी । एदेसिं चेव पज्जत्ताणं जहण्णाणु० सामान्य दोइन्द्रियादिकके अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और पर्याप्तक दोइन्द्रियादिकके कुछ कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और सबके उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय अपर्याप्तकोंके पश्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकके समान भङ्ग होता है। विशेषार्थ-सब प्रकारके एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमें जघन्य अनुभागवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी उत्पत्ति सम्भव होनेसे उनमें जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तम हूतं कहा है, इसलिए वह तिर्यञ्चोंके समान यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। पूर्वोक्त अन्य जीवोंमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल कुछ कम अपनी अपनी भवस्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण बतलाया है यह तो ठीक है परन्तु एकेन्द्रिय, सूक्ष्स एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में जो अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय बतलाया है उसका कारण यह है कि ये भवके अन्तमें एक समयके लिए अजघन्य अनुभागवाले होकर दूसरे समयमें यदि अन्य कायवाले हो जाते हैं तो इनके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय देखा जाता है। . ६४७. सामान्य पञ्चन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा सामान्य पञ्चन्द्रियोंके अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागर है। और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंके जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्व सागर है। विशेषार्थ–पञ्चन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव होनेसे यहाँ जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इनकी भवस्थिति और कायस्थितिको ध्यानमें रखकर इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। ६४८. कायकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिकमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक और बादर वायुकायिक जीवके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है । तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कमेस्थिति प्रमाण है। इन्हीं पर्याप्तकोंके जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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