SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुढे [ भणुभागविहत्ती ४ * सोलसकसाय-णवणोकसायाणं मिच्छत्तस्सेव तिविहा हाणपरूवणा कायव्वा । ६६४३. विसेसाभावादो। ६४४. संपहि एदेण मुत्तेण देसामासिएण सूचिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-लदासमाणजहण्णफद्दयप्पहुडि जाव दारुसमाणदेसघादि उक्कस्सफद्दए ति ताव एदाणि अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तफद्दयाणि घेत्तूण सम्मत्तस्स एगमुक्कस्साणुभागहाणं होदि । पुणो अपुव्वकरणे पढमाणुभागखंडए घादिदे विदियमणुभागहाणं होदि। एवं पढमाणुभागकंडयप्पहुडि जाव अहवस्समेतहिदिसंतकम्मं चेहदि ति ताव एदम्मि अंतरे अणुभागकंडयघादमस्सिदूण संखेज्जसहस्साणुभागहाणाणि लब्भंति, दुचरिमादिफालीओ अस्सिदण अणुभागहाणुप्पत्तीए अभावादो । पुणो अहवस्सहिदिसंतकम्मप्पहुडि जाव एगा हिदी एगसमयकाला ताव एदम्मि अंतरे अंतोमुहत्तमेत्ताणि अणुभागहाणाणि लब्भंति, सम्मत्तस्स एत्थ अणुसमयओवट्टणाए उवलंभादो । का अणुसमयओवट्टणा ? उदय-उदयावलियासु पविस्समाणहिदीणमणुभागस्स उदयावलियबाहिरहिदीणमणुभागस्स य समयं ده بی بی بی سی جی ام سي ج जाती है कि घातस्थानोंकी संख्यात परिपाटियाँ बीत जाने पर सबसे अन्तमें घातसे जो अनुभाग शेष रहता है उसका पुनः घात नहीं होता। इस प्रकार सबसे थोड़े बन्धसमुत्पत्तिकस्थान हैं, उनसे असंख्यातगुणे हतसमुत्पत्तिकस्थान हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होते हैं। ये स्थान मिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागको लेकर कहे गये हैं। * सोलह कषाय और नव नोकषायोंके तीन प्रकारके स्थानोंका कथन मिथ्यात्वकी ही तरह करना चाहिये । १६२६. क्योंकि दोनोंके कथनमें कोई भेद नहीं है। ६.६२७. अब इस सूत्रके द्वारा देशामर्शकरूपसे सूचित सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके स्थानोंका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है - लतासमान जघन्य स्पर्धकसे दारु समान उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक पर्यन्त अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवेंभाग मात्र स्पर्धकोंको लेकर सम्यक्त्व प्रकृतिका एक उत्कृष्ट अनुभागस्थान होता है। पुन: अपूर्वकरणमें प्रथम अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर दूसरा अनुभागस्थान होता है। इस प्रकार प्रथम अनुभागकाण्डकसे लेकर जब तक आठ वर्ष प्रमाण स्थितिकी सत्ता रहती है तब तक इस अन्तरमें अनुभागकाण्डकघातकी अपेक्षा संख्यात हजार अनुभागस्थान प्राप्त होते हैं। क्योंकि द्विचरम आदि फालियोंकी अपेक्षा अनुभागस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती। पुनः आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे लेकर जब तक एक समयकी स्थिति रहती है तब तक इस अन्तरमें अन्तर्मुहूर्त मात्र अनुभागस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि यहां सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रति समय अपवर्तना पाई जाती है। शंका-प्रति समय अपवर्तना किसे कहते हैं ? समाधान-उदय और उद्यावलिमें प्रवेश करनेवाली स्थितियोंके अनुभागका तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy