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________________ गा० २२) अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा ३८९ हाणाणि बंधसमुप्पत्तियहाणेहिंतो असंखेजगुणाणि । को गुणगारो? असंखेज्जा लोगा। बंधसमुप्पत्तियहाणाणि अंगुलस्स असंखे०भागेणोवट्टिय लद्धे असंखे०लोगेण गुणिदे हदसमुप्पत्तियहाणाणंप माणुप्पत्तीदो । ये हतसमुत्पत्तिक स्थान बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंसे असंख्यातगुणे होते हैं। यहाँ पर गुणकारका प्रमाण क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंको अंगुलके असंख्यातवें भागसे भाजित करके जो लब्ध आता है उसे असंख्यात लोकसे गुणित करने पर हतसमुत्पत्तिक स्थानोंकी संख्या उत्पन्न होती है। विशेषार्थ-बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करके हतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करते हैं। जो अनुभागस्थान बन्धसे उत्पन्न होते हैं उन्हें बन्धसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। सलामें स्थित अनुभागका घात करनेपर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उनमेंसे भी कुछ स्थान बध्यमान अनुभाग स्थानके समान होते हैं वे बन्धसमुत्पत्तिक स्थान कहे जाते हैं। किन्तु जो अनुभागस्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं बन्धसे उत्पन्न नहीं होते उन्हें हतसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। ये हतसमुत्पत्तिक स्थान बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंसे असंख्यातगुणे होते हैं। उनका कथन इस प्रकार है-सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके जघन्य अनुभागस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अनुभागस्थान तकके असंख्यात लोकप्रमाण वन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंकी एक पंक्ति दाहिनी ओर रक्खो और बन्ध स्थानोंके अनुभागका घात करने में कारण, जघन्य परिणामस्थानसे लेकर उत्कृष्ट परिणाम स्थान तकके जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हैं, उन्हें बाईं ओर रखो । एक जीवने सर्वोत्कृष्ट घातपरिणामस्थानके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानका घात किया। ऐसा करनेसे अन्तिम अनन्तगुणवृद्धि स्थान रूप अष्टांक और उससे अनन्तरवर्ती नीचेके उर्वक इन दोनोंके बीचमें हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है जो कि उस अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन और उक्त उर्वकसे अनन्तगुणा अनुभागवाला होता है। यह समुत्पत्तिकस्थान सबसे जघन्य होता है. क्योंकि सर्वत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा घाता जाकर उत्पन्न होता है। दसरे एक जीवने उत्कृष्ट विशद्धिस्थान से नीचे के द्विचरिम विशुद्धिस्थानके द्वारा ऊपरके उर्वकका घात किया । ऐसा करने पर अष्टांक और उर्वकके बीचमें पहलेके उत्पन्न हुए हतसमुत्पत्तिकस्थानसे ऊपर दूसरा हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। यह स्थान पहलेके जघन्य स्थानसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। अथात् अभव्यराशिसे अनन्तगुणे औरसिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण भागहारसे जघन्य हतसमुत्पत्तिकस्थानमें भाग देने,पर जो लब्ध आये उसे उसी जघन्य स्थानमें जोड़ देनेपर दुसरा अनुभागस्थान होता है। पहले बन्धस्थानमें भागहार और गुणकार अनन्तप्रमाण सर्व जीवराशि बतला आये हैं और वहां हतसमुत्पत्तिकस्थानमें उसका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण बतलाया है । इसका कारण यह है कि घातस्थानोंकी उत्पत्तिके कारण जो विशुद्धिस्थान हैं उनमें भी गुणकार और भागहारका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भाग ही है, अतः कारणके गुणकार और भागहारसे कार्य जो घातस्थान हैं उनका गुणकार और भागहार जुदा नहीं हो सकता । तथा यदि अनन्तका प्रमाण सर्व जीवराशि ही माना जावे तो उससे घातस्थानको गुणा करनेपर अष्टांकसे अनन्तगुणा घातस्थान होगा, किन्तु अष्टांकसे ऊपर घातस्थानकी उत्पत्तिका निषेध है। सभी घातस्थान अष्टांक और उर्वकके बीचमें उत्पन्न होते हैं ऐसा शास्त्रोंका कथन है। अस्तु, किसी अन्य तीसरे जीवके द्वारा उक्त द्विरिम विशुद्धिस्थानके नीचेके विचरम विशुद्धिस्थानके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात किये जानेपर तीसरा हतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होता है। शायद कोई कहे कि एक अन्तिम उर्वकसे अनेक हतसमुत्पत्तिक स्थान कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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