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________________ गा० २२ अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा ३६७ पावदि । कथमेदस्स पक्खेवजहण्णफद्दयववएसो ? पडिरासीकयजहण्णहाणे एदम्मि पक्खेित्ते पक्खेवजहण्णफद्दयं समुप्पजदि त्ति कारणे कजुवयारादो। एसो एगखंडाणुभागो पक्खेवजहण्णफद्दयचरिमवग्गणेगवग्गसमुप्पत्तिणिमित्तो कथं पक्खेवजहण्णफद्दयसमुप्पत्तीए कारणं ? ण, एदम्हादो हेहिमअविभागपडिच्छेदेहि जहण्णफद्दयसमुप्पत्तीए अदंसणादो । दंसणे वा जहण्णफदयभंतरे अणंताणि जहण्णफद्दयाणि होज्ज ? ण च एवं, अव्ववत्थावत्तीदो। ण च सरिसधणियाणुभागा जहण्णफद्दयस्स उप्पायया, एगोलीअणुभागसमाणतणेण तत्थ पविहाणं पुधकज्जकारित्तविरोहादो । ण च एगोलीअणुभागा हेहिमा तदुप्पायया, तदणुभागाविभागपडिच्छेदसंखाए एत्थेव पयदाणुभागे उवलंभादो। ण च पयदाणुभागादो अहिओ अणुभागो अत्थि जेण तस्स फद्दयसण्णा होज । तदो सगंतोक्वितसयलवग्ग-वग्गणाणुभागतादो एदं चेव जहण्णफद्दयं । एत्थ वडिदाणुभागो' चेव जहण्हफद्दयस्सुप्पत्तिणिमित्तमिदि घेत्तव्वं । एदम्मि पक्खेवजहण्णफदए जहण्णपक्खेवफद्दयसलागविरलणाए विदियरूवोवरि हिदजहण्णफद्दयं घेत्तूण पक्वित्ते पक्खेवस्स विदियफद्दयमुप्पज्जदि । एदम्मि पडिरासीकयम्मितदियख्वधरिदे पक्खित्ते पक्खेवस्स शंका-इसकी प्रक्षेप जघन्य स्पर्धक संज्ञा क्यों है ? समाधान-प्रतिराशिरूप जघन्य अनुभागस्थानमें इसे प्रक्षिप्त करने पर प्रक्षेप जघन्य स्पर्धककी उत्पत्ति होती है, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार करके इसकी प्रक्षेप जघन्य स्पर्धक संज्ञा रखी है.। शंका-यह एक खण्डरूप अनुभाग प्रक्षेप जघन्य स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्गकी उत्पत्तिमें कारण है, अत: यह प्रक्षेप जघन्य स्पर्धककी उत्पत्तिमें निमित्त कैसे हो सकता है ? : समाधान-नहीं, क्योंकि इससे अधस्तन अविभागप्रतिच्छेदोंके द्वारा जघन्य स्पर्धककी उत्पत्ति नहीं देखी जाती। यदि देखी जाय तो जघन्य स्पर्धकके भीतर भी अनन्त जघन्य स्पर्धक हो जाँय । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। शायद कहा जाय कि सदृश धनवाले अनुभाग जघन्य स्पर्धकको उत्पन्न करते हैं, किन्तु ऐसा कहना ठीक. नहीं है, क्योंकि एक पंक्तिमें अनुभागोंके समान होनेसे उसमें प्रविष्ट हुए वे पृथक् पृथक कार्य नहीं कर सकते हैं। शायद कहा जाय कि एक पंक्तिमें रहनेवाले नीचेके अनुभाग उसके उत्पादक हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन अनुभागों के अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्या यहाँ प्रकृत अनुभागमें पाई जाती है। और प्रकृत अनुभागसे अधिक अनुभाग है नहीं, जिससे उसकी स्पर्धक संज्ञा हो जाय। अत: अपने भीतर समस्त वर्ग और वगणाओं के अनुभागको निक्षिप्त कर लेनेके कारण यही जघन्य स्पर्धक है और यहां पर बढ़ा हुआ अनुभाग ही जघन्य स्पर्धककी उत्पत्तिमें निमित्त है ऐसा स्वीकार करना साहिये। इस प्रक्षेप जघन्य स्पर्धकमें जघन्य प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाअोंके विरलन के दूसरे अंकके ऊपर स्थित जघन्य स्पर्धकको लेकर मिला देने पर प्रक्षेपका दूसरा स्पर्धक उत्पन्न होता है। प्रतिराशिरूप इसमें विरलनके तीसरे अंकके १. प्रा० प्रतौ जहएणफइयमेत्तवडिदाणुभागो इति पाठः । २. ता. प्रतौ विदिय [ स ] रूवोवरि, श्रा० प्रतौ विदियसरूवोवरि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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