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________________ २९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ भागविहत्ती ४ O तिरिण पदवि० ० सम्म० सम्मामि० अवद्वि० लो० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सम्म० अपद० छहमवत्त० इत्थि - पुरिस० भुज० लोग० असंखे ० भागो । बादर- मुहुम एइंदिएर्हितो आगंतूण पंचिदियतिरिक्खेसु उप्पण्णाणमित्थि - पुरिसवेदभुजगारस्स सव्वलोगो किण्ण लब्भदे ? ण, विसोहिवसेण पंचिंदियतिरिक्खे सुप्पज्जमाणाणं विग्गहगईए भुजगारबंधाभावादो । वरि जोणिणी० सम्म० अप्पद० णत्थि । पंचिं ० तिरि० अपज्ज० aarti पयडीणं तिरिणपदवि० सम्म० सम्मामि० अवहि० लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० भुज० लोग० असंखे ० भागो । एवं मणुस - अपज्ज० । मणुसतियस्स पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्मामि० अप्प० खेत्तं । ५००. देवे० छब्बीसं पयडीणं तिरिण पदवि० सम्मत्त सम्मामि० श्रवहि० लोग० असंखे० भागो अह - णवचोदस० देसृणा । इत्थि - पुरिस० भुज० छण्हमवत्तव्व ० चोस देणा | सम्मत्त० अप्प० खेत्तं । एवं सोहम्मीसाणे । भवण० -- वाण०लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्च न्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियो में छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तिवाले जीवो ने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने तथा छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने और स्त्रीवेद तथा पुरुषदकी भुजगारविभक्तिवाले जीवों ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शंका - बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रियों में से आकर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो में उत्पन्न होनेवाले जीवो के स्त्री वेद और पुरुषवेदकी भुजगारविभक्तिका स्पर्शन सर्वलोक क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान- नहीं, क्योंकि विशुद्ध परिणामोंके वशसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले जीवो के विग्रहगति में भुजगारका अभाव है । इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियों में सम्यक्त्वक र विभक्ति नहीं है । चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तिवाले जीवोंने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है । इतना विशेष है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदी भुजगार विभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तको में जानना चाहिए। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में पचेन्द्रिय तिर्य के समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर विभक्ति वालों का स्पर्शन क्षेत्र के समान है। 1 $ ५००. देवो में छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तिवाले जीवो ने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और चौदह राजू में से कुछकम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार विभक्तिवाले जीवो ने और छह प्रकृतियों की अवक्तव्य विभक्तिवाले जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिवालो का १. श्र० प्रतौ देसूणा सम्वलोगो वा सम्म० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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