SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८९ गा० २२ ] अनुभागविहत्तीए भुजगारे भागाभागो ४६२. मणुसा० ओघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवचव्व० असंखे०भागो। एवं मणुसपज्ज०-मणुसिणी०। णवरि जम्मि असंखे भागो तम्मि संखे भागो कायव्यो। आणदादि जाव णवगेवज्ज. सत्तावीसं पयडीणमप्पद० सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु० चउक० अवत्तव्व० असंखे० भागो । सव्वेसिमवहिद० असंखेज्जा भागा । णवरि अणंताणु०४ भुज. असंखे०भागो । अणुद्दिसादि जाव अवराइदं ति एवं चेव । णवरि सम्म०--सम्मामि० --अणंताणु०चउक्क० अवचव्व० अणंताणु० भुज. पत्थि । सव्वहे सत्तावीसपयडीणमप्पद० संखे० भागो। अवहि० संखेजा भागा। सम्मामि० णत्थि भागाभागो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ४६३. परिमाणाणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण छब्बीसं पयडीणं तिषिण पद० दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० असंखेज्जा । सम्मत्त-सम्मामि० दो पदा असंखेज्जा। अप्पद० संखेज्जा । ४६४. आदेसेण रइएसु अहावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेज्जा । णवरि सम्म० अप्पद० ओघं । एवं पढमपुढवि. पंचिंदियतिरिक्ख--पंचिं०तिरि०पज०भाग नहीं है। १४९२. सामान्य मनुष्योंमें ओघकी तरह भंग है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि जिनका भागाभाग असंख्यातवें भाग प्रमाण है उनमें संख्यातवें भाग प्रमाण कर लेना चाहिए। आनतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। सब प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्ति तथा अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी भुजगार विभक्ति वहाँ नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग वहाँ नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए। ४९३. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य और अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं और अल्पतर विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। ४९४. श्रादेशसे नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब विभक्तिवालोंका परिमाण असंख्यात है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्तिवालोंका परिमाण ओघकी तरह जानना चाहिए। इसीप्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतियंच, पञ्चेन्द्रियतियञ्चपर्याप्त, सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy