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________________ गा० २२ अणुभागविहत्तीए अंतरं २४३ उक्क. वासपुधत्तं । सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि-तिरिक्खतियदेवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि संम्मत्त० अणुक्कस्साणु० णत्थि। एवं जोणिणी--पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभवण-वाण-जोदिसिओ त्ति ।। $ ३६६. मणुसतिय० ओघं । णवरि मणुसिणीसु सम्मत्त-सम्मामि० अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं उक्क० ओघं । अणुक्क. सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। ४००. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति छब्बीसंपयडीणमुक्क० अणुक० णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० अणुक्क • जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । णवरि सवढे पलिदो० असंखे०भागो। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । थ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग उनमें नहीं है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और उयोतिषियोंमें जानना चाहिए। ३९९. सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियो में ओधकी तरह भङ्ग है। इतना विशेष है कि मनुष्यिनियो में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियो के उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघकी तरह है। उनके अनुत्कृष्ट अनुभागका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४००. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवो में छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। इतना विशेष है कि सर्वार्थसिद्धिमें उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग दर्शनमोहके क्षपक के होता है, अत: नाना जीवो की अपेक्षा क्षपकका जितना अन्तर है उतना ही अन्तर इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका भी होता है। आदेशसे नारकियों में सम्यक्त्व प्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर जघन्यसे तो एक ही समय है किन्तु उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्व है, अर्थात् कोई कृतकृत्यवेदक इतने काल तक नरकमें नहीं पाया जाता । मनष्यिनियों में भी उत्कृष्ट अन्तर इतना ही है,क्योंकि मनुष्यिनियों में क्षपकका भी अन्तरकाल इतना ही बतलाया है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृ. तियो के अनुत्कृष्ट अनुभागका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि यह सान्तर मार्गणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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