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________________ iraniwww गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो १९५ सणेण परिणामो होदि तो अणुभागसंतादो बज्झमाणाणुभागे अणंतगुणे संते संतहिदीए अणुभागेग अणंतगुणेण होदव्वमिदि सच्चं, इच्छिज्जमाणत्तादो। एवं होदि ति कुदो णव्वदे ? सजोगिकेवलिम्हि पुत्वकोडिविहरिदम्मि सादावेदणीयस्स उकस्साणुभागुवलंभादो । सुहुमसांपराइयस्स उक्कस्साणुभागेण सह बज्झमाणचरिमहिदिबंधो बारसमुहुत्तमेत्तो। तम्मि बारसमुहुत्तेसु अघहिदिगलणाए गलिदेसु उक्कस्साणुभागाभावेण वि होदव्वं, पदेसेहि विणा अणुभागस्स अत्थित्तविरोहादो। अत्थि च उक्कस्साणभागो सजोगिम्हेि, तदो गव्वदे जहा संतहिदिपदेसा बज्झमाणाणुभागसरूवेण उक्कड्डिजति त्ति तम्हा अणंताणुबंधीणं वि एगसमयत्तं जुज्जदि त्ति । एवं चुण्णिमुत्तमस्सिदूण ओघकालाणगमं परूविय संपहि उच्चारणमस्सिदण परूवेमो । बध्यमान अनुभागरूपसे संक्रमण करता है और इस तरह वह अनन्तगुणे हीन रूपसे परिणमन करता है अथोत् उसका अनुभाग अनन्तगुणा हीन हो जाता है तो सत्तामें विद्यमान अनुभागसे बध्यमान अनुभाग अनन्तगुणा होने पर सत्तामें स्थित अनुभाग अनन्तगुणा हो जाना चाहिये । अर्थात् जब बध्यमान अनुभागरूपसे परिणमन करनेर सत्तामे स्थित अनुभाग घट सकता है तो बढ़ना भी चाहिये ? समाधान-आपका कहना सत्य है । यह तो इष्ट ही है। शंका-अनुभाग बढ़ भी जाता है यह कैसे जाना ? समाधान-एक पूर्वकोटि तक विहार करनेवाले सयोगकेवलीमें सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है। इसका खुलासा इसप्रकार है- सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थानवी जीवके उत्कृष्ट अनुभागके साथ बंधनेवाला सातावेदनीयका अन्तिम स्थितिबन्ध बारह मुहर्त मात्र होता है। अधःस्थितिगलनाके द्वारा उन बारह मुहर्लोका क्षय हो जाने पर उत्कृष्ट अनुभागका भी अभाव होना चाहिये, क्योंकि प्रदेशोंके विना अनुभागकी सत्ता नहीं रह सकती। किन्तु सयोगवलीमें उत्कृष्ट अनुभाग रहता है, अत: जाना जाता है कि सत्तामे विद्यमान स्थितिसत्कर्म बध्यमान अनुभागरूपसे उत्कर्षको प्राप्त हो जाते हैं, अतः अनन्तानुबन्धीका भी एक समय काल युक्त है। इस प्रकार चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर ओघसे कालानगमको कहकर अब उच्चारणाका श्राश्रय लेकर कालको कहते हैं विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करके सम्यक्त्वसे च्युत होकर जो अनन्तानुबन्धीका बन्ध करता है उसके प्रथम समयम अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। उसका काल एक समय है, क्योंकि दूसरे समयमें संक्लेशके बढ़ जानेसे अनुभागबन्ध तीव्र होने लगता है। इसपर शकांकारका कहना है कि प्रथम समयसे ही सत्तामस्थित अन्य कषायोंके परमाणु अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमण करने लगते हैं सो जैसे प्रथम समयम संक्रमण करते हैं वैसे ही दूसरे समयम संक्रमण करते हैं, उनके अनुभागमें कोई अन्तर नहीं हैं, अतः जघन्य अनुभागकी सत्ताका काल अन्तर्मुहूर्त क्यो नहीं कहा तो उसका उत्तर दिया गया कि यहाँ संक्रमित अनुभागकी प्रधानता नहीं है किन्तु बध्यमान अनुभागकी प्रधानता है । अर्थात् संक्रान्त अनुभाग बध्यमान अनुभागरूपसे परिणमन करता है, बध्यमान अनुभाग सक्रान्त १. ता. प्रतौ उकस्साणुभागो जोगिम्हि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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