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________________ १२७ गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुगाणुगमो $ १८७. संपहि पमाणं वुच्चदे। तं जहा–बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तिय-हदहदसमुप्पत्तियहाणाणं तिण्हं पि पमाणमसंखेज्जा लोगा। कुदो ? तक्करणपरिणामाणमसंखेज्जलोगपमाणत्तादो। ___ एवं पमाणाणुगमो समत्तो। * अप्पाबहुगाणुगमं वत्तहस्सामो । ( १८८ तं जहा-सव्वत्थोवाणि मोहबंधसमुप्पत्तियहाणाणि । हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणि असंखे० गुणाणि । कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तबंधसमुप्पत्तियछटाणाणमहकुव्वंकाणं विच्चालेसु पुध पुध असंखे लोगमेतहदसमुप्पत्तियसंतकम्मछटाणाणमुप्पस्थान कहलाता है और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके जो सर्वोत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान होता है वह उत्कृष्ट बन्धसमुत्पत्तिक स्थान होता है। जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त इन बन्धसमुत्पत्तिक स्थानों की संख्या असंख्यात लोकप्रमाण है। सत्तामें स्थित अनुभागका घात कर देनेसे जो अनुभागस्थान होते हैं उनमेंसे भी कुछ स्थान बन्धस्थान ही कहे जाते हैं, क्योंकि उन स्थानोंमें जो अनुभाग पाया जाता है वह अनुभाग बध्यमान अनुभागस्थानके समान होता है। किन्तु जो अनुभाग स्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं-बन्धसे नहीं होते, और जिनका अनुभाग बन्धसमुत्पत्तिकस्थानों से भिन्न होता है उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते हैं। ये हतसमुत्पत्तिकस्थान अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिरूप बन्धसमुत्पत्तिक असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंमें ऊर्वक और अष्टांकके बीचमें उत्पन्न होते हैं और इनका प्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंसे असंख्यातगुणा होकर भी असंख्यात लोकप्रमाण ही है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिरूप इन असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थानोंमें ऊर्वंक और अष्टांकके बीचमें अनुभागका पुन: पुन: घात करनेसे जो अनुभागस्थान होते हैं उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक कहते हैं। पूर्ववत् इनका प्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थानोंसे असंख्यातगुणा होकर भी असंख्यात लोकप्रमाण ही है। षट्खण्डागमके वेदनाखण्ड में वेदनाभावविधान नामका एक प्रकरण है उसमें इन अनुभागस्थानोंका विस्तारसे वर्णन किया है। तथा इस ग्रन्थके इस अनुभागविभक्ति नामक प्रकरणके अन्तमें भी वही वर्णन अक्षरशः किया गया है, अत: इसका विशेष स्पष्टीकरण वहाँसे जान लेना चाहिए। इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई। १८७. अब प्रमाणको कहते हैं। वह इस प्रकार है-बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक इन तीनों ही स्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक है, क्योंकि उनके कारणभूत परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ। * अब अल्पबहुत्वानुगमको कहेंगे। ६१८८. वह इस प्रकार है-मोहनीयके बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे थोड़े हैं । इनसे हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थान असंख्यातगुणे हैं क्योंकि अष्टांक और उर्वकरूप असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक षट्स्थानों के बीचमें पृथक् पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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