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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ $ १३७. कसायाणुवादेण कोध-माण-माया. जहण्णाणु० ज० एगसमओ, उक्क० वासं सादिरेयं । अज० णत्थि अंतरं । अकसाय० जहण्णाजहण्णाणु० ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवं जहाक्खाद० । परिहार० जहण्णाजहएगाण. पत्थि अंतरं । एवं संजदासंजद० । मुहुमसांपराय० जहएगाणु० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । एवमजहएणं पि । तेउ-पम्म० जहण्णाजहएण. पत्थि अंतरं । वेदग० जहणणाणु० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । उवसम० जह० ज० एगसमओ, उक्क. वासपुधत्तं । अज० ज० एगस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । सम्मामि० जह. अजह० जह० एगस, उक्क० दोण्हं पि पलिदो० असंखे० भागो । एवमंतराणुगमो समत्तो। ६ १३८. भाव० सव्वत्थ ओदइओ भावो । १३७. कषायकी अपेक्षा क्रोध, मान और मायामें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक एक वर्ष है। अजय य अनुभागका अन्तर नहीं है। अकषायी जीवोंमें जघन्य और अजघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयतोंमे' जघन्य और अजघन्य अणभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार संयतासंयतोंमें जानना चाहिये। सूक्ष्मसाम्परायसंयतोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह मास है । इसी प्रकार अजघन्य अनुभागका भी अन्तर जानना चाहिए। तेजालेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमे जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अ.तर वर्षपृथक्त्व है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रात दिन है। सम्यग्मिध्यादृष्टियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनोंका ही पल्य के असंख्यातवें भाग है।। विशेषार्थ यहाँ क्रोध कषायसे लेकर जितनी मार्गणाओंमें अन्तर कालका विचार किया है वह सुगम है, इसलिए उसका पृथर पृथ- स्पष्टीकरण नहीं किया है। मात्र क्रोध, मान और माया कषायमें क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, इसलिए इनमें मोहनीयके जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्षे कहा है। शेष सब स्पष्ट ही है। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६१३८. भावसे सर्वत्र औदायिक भाव है। विशेषार्थ-औदयिक भावके सद्भावमें मुख्य रूपसे मोदनीयकर्मका बन्ध होता है जो उसकी सचाका कारण है, इसलिए यहाँ औदयिक भाव कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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