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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए पोसणं भागो अह-णवचोदसभागा देमूणा । सणक्कुमारादि जाव आरणच्चुदे ति उक्कस्सभंगो। उवरि खेत्तभंगो। ११७. कायाणुवादेण बादरवाउकाइयपज्जत्तएसु मोह० जहण्णाजहण्णाणु० लोग० संखे०भागो सव्वलोगो वा। प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमारसे लेकर आरण-अच्युत तकके देवोंमें उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवालोंके समान स्पर्शन है। आगेके देवोंमे क्षेत्रके समान स्पर्शन है। विशेषार्थ-सामान्यसे देवोंमे जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले असंज्ञी जीव मरकर उत्पन्न होते हैं उनके जघन्य अनुभाग उपलब्ध होता है। अत: ऐसे जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक उपलब्ध नहीं होता, अत: यह क्षेत्र के समान कहा है। तथा देवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण बतलाया है। यत: इस सब प्रकारके स्पर्शनके समय मोहनीयकी अजघन्य अनुभागविभक्ति सम्भव है, अत: इनमे अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमे यह स्पर्शन इसी प्रकार प्राप्त होता है, अत: इनका भङ्ग सामान्य देवोंके समान कहा है। यहाँ इतनी विशेषता अवश्य है कि इन दोनों प्रकारके देवोंमे वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें. भागप्रमाण, स्वप्रत्यय विहारकी अपेक्षा कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह राजु, परप्रत्यय विहार तथा वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन जानना चाहिए । ज्योतिषी देवों में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालो के मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है । यतः ऐसे देवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, स्वप्रत्यय विहारकी अपेक्षा कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह राजु और परप्रत्ययविहार आदिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन सम्भव है, अतः इनमे जघन्य अनुभागवालो का उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा अजघन्य अनुभागवालो का यह स्पर्शन तो होता ही है। साथ ही इनके मारणान्तिक समुद्घातके समय कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन भी सम्भव है, अत: इनका स्पर्शन इसको मिलाकर कहा है । सौधर्म और ऐशान कल्पमे वर्तमानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन होता है। इनमेंसे जघन्य अनुभागविभक्ति के समय कुछ कम नौ बटे चौदह राजप्रमाण स्पर्शन सम्भव नहीं है, क्योंकि जो देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके जघन्य अनुभागविभक्ति नहीं हो सकती, अतः इस अन्तरको ध्यानमें रखकर यहाँ दोनो अनुभागवालो का स्पर्शन कहा है। आगे भी इसी प्रकार स्वामित्वको ध्यानमें रखकर जघन्य और अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। $ ११७. कायकी अपेक्षा बादर वायुकायिकपर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका संख्यातवां भाग और सर्वलोक है। विशेषार्थ-बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवो ने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है, इसलिए इनमें दोनों प्रकारके अनुभागवालो का स्पर्शन उक्तप्रमाण बन जाता है, अतः वह उक्तप्रमाण कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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