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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १११. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे०। ओघेण मोह. जहण्णाणुभाग० केव० खे० पो• ? लोग० असंखे०भागो। अज० सव्वलोगो। एवं कायजोगि०-ओरालिय०-णस० चत्तारिकसाय-अचक्खु०-भवसि०--आहारि त्ति । ११२. आदेसेण णेरइएमु जह० खेत्तभंगो। अज० लोग० असंखे० भागो छच्चोदस० देसूणा । पढमपुढवि० खेत्तभंगो । विदियादि जाव सतमि त्ति जह० खेत्तभंगो। अज. सगपोसणं । का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा कुछ कम आट बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इनके इन सब स्पर्शनों के समय दोनों विभक्तियाँ सम्भव हैं, इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ । ६१११. अब प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है -ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्वलोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारकोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ ओघसे मोहनीयका जघन्य अनुभाग क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंके होता है, इसलिए इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और अजघन्य अनुभाग अन्य सब मोहकी सत्तावाले जीवोंके होता है, इसलिए इनका स्पर्शन सब लोक कहा है। 5 ११२. प्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमे जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमे' से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है पहिली पृथ्वीमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तक जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए। विशेषार्थ जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले असंज्ञी जीव नरकमें उत्पन्न होते हैं इनके मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है। यत: ऐसे जीव प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होते हैं,अतः सामान्यसे नारकियोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा सामान्यसे नारकियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है, अतः इनमें अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। प्रथम नरकमें दोनों प्रकारके अनुभागवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। दूसरे आदि नरकोंमें जो जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं उनके जघन्य अनुभाग होता है। यत: ऐसे जीवोंका मारणान्तिक पदकी अपेक्षा भी स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, अत: द्वितीयादि नरकोंमें जघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और जिस नरकका जो स्पर्शन है वह वहाँ अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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