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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो १३८, मणुस० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० रइयभंगो। अणंताणु०चउक्क एवं चेव । णवरि अवत्त० केव० १ जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया। सम्मत्त०. सम्मामि० अप्पदर० केव० ? सव्वद्धा । भुजगार-अवद्विद-अवत्तव्याणं केव० ? जह० एगस०, उक० संखे० समया । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं । णवरि जम्मि आवलि. असंखे०भागो तम्मि संखेज्जा समया । मणुस अपज्ज० मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोक० भुज०-अप्पद०-अवडि० सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० के० ? ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । णवरि भुज० आवलि० असंखे०भागो। १३६. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० अप्पदर० सव्वद्धा । अणंताणु० चउक्क० अवत्त० ओघ । सम्मत्त-सम्मामि० भुजगार० अवढि०. अवत्तव्व० ज० एगसमओ, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अप्पदर० सव्वद्धा । एवं सुकले० । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ट० अठ्ठावीसंपय० अप्पद० सव्वद्धा। एवमाभिणि.. ६१३८. सामान्य मनुष्योंमें मिथ्या त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है । भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्या समय है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ आवलीका असंख्यातवाँ भाग काल है वहाँ संख्यात समय काल कहना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-मनुष्योंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीव संख्यात ही अतः इनमें उक्त विभक्तिवालोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय बतलाया है। यही बात सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिवालोंके सम्बन्धमें जान लेना चाहिये। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी तो संख्यात ही होते हैं, अतः मूलमें सामान्य मनुष्योंमें जिन स्थितिविभक्तिवालोंका आवली के असंख्यातवें भाग काल बतलाया है वहाँ भी इनके संग्ख्यात समय काल जानना चाहिये । लभ्यपर्यातक मनुष्योंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है अत: यहाँ सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बतलाया । किन्तु भुजगार स्थितिका उपक्रम काल ही आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया। $ १३६. आनत कल्पसे लेकर उपरिम गवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अलातर स्थितिविभक्तियाले जीवोंका सब काल है। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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