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________________ ३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मिच्छत्त० अप्प० मिच्छत्तभंगो।] विगलिंदियअपज्जत्ताणमेवं चव । णवरि अप्पद० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। ५६. पंचिंदिय-पंचिं०पज्जत्ताणमोघं । णवरि भुज. जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि अट्ठारस समया। सम्म०-सम्मामि० अप्प० जह० एगसमयो' । पंचिंदियअपज्ज. पंचिंतिरिक्खअपज्ज०भंगो। अल्पतर स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल दो समय अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयकी अपेक्षासे कहा है। तथा सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय जो दूसरी पृथिवीमें बतला आये हैं वह एकेन्द्रियों के भी बन जाता है, अतएव यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिका काल दूसरी पृथिवीके समान कहा है। एकेन्द्रियोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवक्तव्य व अवस्थित स्थिति नहीं होती, क्योंकि इनके ये पद सम्यग्दृष्टिके पहले समयमें ही सम्भव है। एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है.। कि जो पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर निरन्तर एकेन्द्रिय ही रहे आते हैं उन्हें सत्तामें स्थित शितिको घटाकर एकेन्दियके योग्य करने में पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगता है। मुलमें बादर एकेन्द्रिय आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। इसी प्रकार पाँचों स्थावरकाय बादर अपर्याप्त तथा सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंके भी जानना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष है इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्षे कहा। तथा विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तमहूर्तप्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है। ५४. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके ओघके समान जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगारका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा तीन समय तथा शेषकी अपेक्षा अठारह समय है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए। विशेषार्थ _पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें संज्ञी और असंज्ञी दोनों भेद सम्मिलित हैं. अतः इनमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल तीन समय तथा सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल अठारह समय बन जाता है। इन तीन और अठारह समयोंका विशेष खुलासा पहले किया ही है उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिये। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा प्राप्त होता है। इस प्रकार यहाँ उक्त कथनमें ओघसे विशेषता है । शेष सब कथन ओघके समान है। १ ता. प्रतौ समयो......। पंचि-इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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