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________________ १४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ २४. अंणुहिस्सादि जाव सम्वसिद्धि ति सबपयडीणमप्पदरं कस्स १ अणद० । एवमाहार०-आहारमिस्स० अवगद० अकसा० आभिणि सुद०- ओहि०-मणपज० संजद०. समाइय-छेदो०-परिहार०-सुहम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०खाय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि ति । ओरालियमिस्स० छब्बीसपयडि तिण्हं पदाणमोघं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पद० ओघं । एवं वेउव्वियमिस्स.कम्मइय०-अणाहारए ति : अभव० छब्बीसपयडीणं तिण्हं पदाणमेइंदियभंगो। एवं सामित्वाणुगमो समत्तो। * एत्तो एगजीवेण कालो। २५. सुगममेदं सुत्तं । * मिच्छत्तस्स भुजगारकम्मसियो केवचिरं कालादो होदि ? २६. एवं पि सुगमं । * जहएणेण एगसमओ। होती किन्तु जब समुत्कीर्तनामें भी आनतादिमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके पद ओषके समान बतलाये हैं तब इसे लेखकोंकी भूल नहीं कह सकते । तब प्रश्न हुआ कि तो यहाँ अवस्थित पद कैसे बनता है ? इसपर वीरसेनस्वामीने यह समाधान किया है कि जिसने आनतादिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाद्वारा मिथ्यात्वसे कम स्थिति कर ली है वह जब सम्यक्त्वके सम्मुख होता है तब मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिखण्डके पतन द्वारा यदि सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थिति एक समय अधिक करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति बन जाती है। यह कालकी प्रधानतासे कथन किया है। पर जब निषेकोंकी प्रधानतासे विचार करते हैं तब सनान स्थितिवालोंके सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्ति प्रात होती है। किन्तु इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति नहीं बनती। २४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतरस्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी आहारकमिश्रकाय. योगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, अभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। - औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा तीन पदोंका भंग ओघके समान है। तथा सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्ति ओघके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगो और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा तीन पदोंका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। *आगे एक जीवकी अपेक्षा कालानुगमका अधिकार है। ६ २५. यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वके भुजगारस्थितिसत्कर्मवाले जीवका कितना काल है ? $ २६. यह सूत्र भी सुगम है। . * जघन्य काल एक समय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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