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________________ गा० २२] विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३२७ अणियट्टिकरणद्धा थोवा त्ति दट्ठव्वा । * अपुव्वकरणद्धा संखेज गुणा । ६ ६१८. चारित्तमोहणीयक्खवयस्से त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे, तेण चारित्तमोहणीयक्खवयस्स अपुव्वकरणद्धा तस्सेव अणियट्टिकरणद्धादो संखेजगुणा त्ति सुत्तत्थो वत्तव्यो । पुव्विल्लअणियट्टिसद्धो किण्ण करणपरो कदो ? ण, एत्थतणकरणसहस्स सीहावलोयणेण तत्थावट्ठाणादो। * चारित्तमोहणीयउवसामयस्स अणियट्टिद्धा संखेज गुणा । ६६१९. चारित्तमोहक्खवयस्स वुदासहं चारित्तमोहउवसामयस्से त्ति णिद्देसो कओ । गुणगारपमाणं सव्वत्थ तप्पाओग्गाणि संखेजरूवाणि । सेसं सुगमं । 8 अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा । ६२०. चारित्त मोहउवसामयस्से त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे । तेण चारित्तमोहउवसामयस्स अपव्वकरणद्धा तस्सेव अणियट्टिकरणद्धादो संखे०गुणा ति सुत्तत्थो वत्तव्यो । एवं वारसक०-णवणोकसायाणं खवगसेढिमस्सिदृण लब्भमाणट्ठाणाणं साहणं परूविय संपहि दंसणमोहणीयतियस्स तक्खवणाए लब्भमाणहिदिसंतट्ठाणाणं साहणट्ठवृत्तिकरणका काल थोड़ा है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । 3 इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। ६६१८. 'चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके' इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है । अतः चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरणको काल उसीके अनिवृत्तिकरणके कालसे संख्यातगुणा है, इस प्रकार सूत्रका अर्थ कहना चाहिये। शंका-पूर्व सूत्रमें अनिवृत्ति शब्दके आगे करण शब्द क्यों नहीं जोड़ा। समाधान-नहीं, क्योंकि इस सूत्रमें विद्यमान करण शब्द सिंहावलोकन न्यायसे पूर्वसूत्रमें रहता है। ® इससे चारित्रमोहनीयकी उपशमना करनेवाले जोवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। ६६१९. पूर्वसूत्र से अनुवृत्तिको प्राप्त होनेवाले 'चारित्रमोहक्खवयस्स' इसके निराकरण करनेके लिये 'चारित्तमोहउवसामयस्स' इस पदका निर्देश किया । गुणकारका प्रमाण सर्वत्र उनके योग्य संख्यात अङ्क जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है। 8 इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है । ६ ६२०. इस सूत्र में 'चारित्तमोहउवसामयस्स' इस पदकी पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति होती है। अतः चारित्रमोहकी उपशमना करनेवाले जीवके अपूर्वकरणका काल उसीके अनिवृत्तिकरणके कालसे संख्यातगुणा है ऐसा सूत्रका अर्थ करना चाहिये । इस प्रकार क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा बारह कषाय और नौ नोकषायोंके प्राप्त होनेवाले स्थानोंकी सिद्धिका कथन करके तीन दर्शनमोहनीयको अपेक्षा उनकी क्षपणामें प्राप्त होनेवाले स्थितिसत्त्वस्थानोंकी सिद्धिके लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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