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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअ ३०७ संखे०गुणहाणिक० असंखे०गुणा। संखे०गुणवडिक० विसेसाहिया। संखे०भागवडिसंखे०भागहाणिक० दो वि सरिसा संखे गुणा। असंखे भागवढिक० असंखे०गुणा । अवद्वि० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० संखेजगुणा। अणंताणु०चउक्क० णेरइयभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवढि० । असंखे०भागववि० संखेगुणा। असंखे०गुणवडि० संखे०गुणा। संखेगुणवडि० संखे गुणा । संखे०भागवढि० संखे०गुणा । अवत्तव्व० संखे गुणा। असंखे गुणहाणि. असंखे०गुणा। संखे०गुणहाणि० असंखे०गुणा। संखे०भागहाणिक असंखे०गुणा, जइवसहुवएसेण संखेजगुणा । असंखे०भागहाणि० असंखेजगुणा । एवं मणुसपजत्त-मणुसिणीणं । णवरि जत्थ असंखे गुणं तत्थ संखेन्गुणं कायव्वं । ५८९. देवाणं णेरइयभंगो । एवं भवणवासिय-वाणवेंतरदेवाणं । जोइसियादि जाव सहस्सारकप्पो त्ति विदियपुढविभंगो । आणदादि जाव णवगेवजा त्ति बावीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखे०भागहाणिकम्मंसिया । असंखे०भागहाणिकम्मंसिया असंखेगुणा । सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेन्गुणहाणिक०। संखे गुणहाणिक० विसेसाहिया । असंखे०भागवढिकम्मंसिया असंखे गुणा । असंखे०गुणवहिक० असंखे०गुणा । थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि कर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाले ये दोनों परस्पर समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यताभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग नारकियोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । पर यतिवृषभ आचायके उपदेशानुसार संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ पर असंख्यातगुणा है वहाँ पर संख्यातगुणा करना चाहिये। ५८९. देवोंका भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिये । तथा ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है । आनत कल्पसे लेकर नौवेयकतकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वको अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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