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________________ ३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिकम्मंसिया। अवट्टिदक० असंखे०गुणा । असंखे०भागवडिक० असंखे०गुणा। असंखे०गुणवडिक० असंखे०गुणा । संखे०गुणवडिक० असंखे०गुणा । संखे०भागवडिक० संखे०गुणा । संखे०गुणहाणिक० संखे०गुणा । संखे०भागहाणिक० संखे०गुणा। अवत्तव्वकम्मंसिया असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा । गुणगारो पुण सव्वपदाणं पि आवलि० असंखे०भागो। ६५८५. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिकम्मसिया । संखे०गुणवडिक० विसेसाहिया । संखे०भागवहि-संखे०भागहाणिकम्मंसिया दो वि सरिसा संखे०गुणा । असंखे०भागवडिकम्मंसिया असंखे०गुणा । अवट्ठिदक० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० संखेजगुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघं । अणंताणु०चउक्क० सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया। असंखेल्गुणहाणिक० संखेजगुणा । संखे०गुणहाणिक० असंखे०गुणा । संखे०गुणवडिक० विसेसाहिया । सेसं मिच्छत्तभंगो । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि संखे०गुणवहि-संखे गुणहाणिकम्मंसिया दो वि सरिसा । $ ५८६. तिरिक्खेसु ओघं । णवरि वावीसपयडीणमसंखे०गुणहाणी णत्थि । समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यात्रगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अवस्थितकर्मवाले जीव असं यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंर यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । परन्तु सभी पदोंका गुणकार आवलिके असंत्यातवें भागप्रमाण है। ६५८५. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि कर्मवाले जीव ये दोनों समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा ओघके समान भंग है । तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कको अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। शेष भंग मिथ्यात्वके समान है। इस प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि कर्मवाले ये दोनों ही प्रकारके जीव समान हैं। ६५८६. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि नहीं है । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकका भंग नारकियोंके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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