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________________ गा० २२] ट्ठिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २९९ भागवहिविहत्तिएहितो संखे०गुणवहिविहत्तिएहि संखे०गुणेहि होदव्वमिदि १ ण, सण्णीणं मिच्छत्तधुवट्टिदीदो हेडिमसम्मत्तद्विदिसंतकम्मेण सम्मत्तं पडिवजमाणेहितो उवरिमहिदिसंतकम्मेण सम्मत्तं पडिवजमाणाणमसंखे गुणत्तादो। के वि आइरिया एवं भणंति जहा मिच्छत्तधुवहिदिसमाणसम्मत्तहिदिसंतादो उवरिमट्टिदिसंतकम्मे हि सम्मत्तं पडिवजमाणेसु . संखेजगुणवद्विविहत्तिएहिंतो संखेजभागवडिविहतिया संखेजगुणा होंतु णाम किंतु ते अप्पहाणा, अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो। धुवट्टिदीदो हेट्ठिमट्टिदीसु संखेजभागवडिविहत्तिया पहाणा, पलिदो० असंखे०भागसंचिदत्तादो मिच्छत्तेण चिरकालमवहिदत्तादो च । एदेहिंतो संखेजगुणवढिविहत्तिया संखे०गुणा, पुविल्लाणमुव्वेल्लणकालादो एदेसिमुव्वेलणकालस्स संखे०गुणत्तादो मिच्छत्तेण बहुकालमवद्विदत्तादो च । एसो अत्थो जइवसहाइरिएण हिदिसंकमे परूविदो दोण्हं वक्खाणाणमत्थित्तजाणावणडं। ॐ संखेजगुणहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा । ६ ५७७. कुदो? सम्मत्तस्स संखेजगुणहाणिकदासेसजीवाणं गणहादो । तं जहा-जेहि सम्मत्तस्स गुणहाणो कदा तेसिं संखे०भागमेत्ता जीवा वेदगसम्मत्तं घेत्तण सम्मत्तहिदीए संखेजगुणवyि संखे०भागवहिं च कुणंति, सव्वेसिं सम्मत्तग्गहणस्थितियोंमें रहनेका काल बहुत है। अतः संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे होने चाहिये ? । समाधान नहीं, क्योंकि संज्ञियोंकी मिथ्यात्व सम्बन्धी ध्रुवस्थितिसे अधस्तन सम्यक्त्वस्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे उपरिम स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्व को प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । कितने ही आचार्य इस प्रकार कहते हैं कि मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके समान सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे उपरिम स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंमें संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीब संख्यातगुणे होवें किन्तु वे अप्रधान हैं, क्योंकि उनके संचित होनेका काल अन्तर्मुहूर्त है। हाँ ध्रुवस्थितिसे अधस्तनस्थितियोंमें संख्यातभागवृद्धि विभक्तिवाले जीव प्रधान हैं, क्योंकि उनके संचित होनेका काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग है और मिथ्यात्वके साथ ये चिरकाल तक अवस्थित रहते हैं। तथा इनसे। संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि पूर्वके जीवोंके उद्वेलनाकालसे इनका उद्वेलनाकाल संख्यातगुणा है और ये मिथ्यात्वके साथ बहुत काल तक अवस्थित रहते हैं। दोनों व्याख्यानोंके अस्तित्वका ज्ञान करानेके लिये यह अर्थ यतिवृषभ आचायने स्थितिसंक्रममें कहा है। ॐ संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६५७७. क्योंकि जिन्होंने सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानि की है ऐसे सब जीवोंका यहाँ प्रहण किया है। खुलासा इस प्रकार है-जिन्होंने सम्यक्त्वको गुगहानि की है उनके संख्यातवेंभागप्रमाण जीव वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके सम्यक्त्वकी स्थितिकी संख्यातगुणवृद्धि या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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