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________________ २९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ होंति त्ति अम्हाण णिच्छयो, सव्वत्थ आवलियाए असंखे ० भागमे त्तगुण गारपरूवणादो । * अवदिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ५७२. कुदो, सम्मत्तट्ठिदिसंतं पेक्खिदूण समयुत्तरमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मियमिच्छाद्विणा वेदगसम्मत्ते गहिदे सम्मत्तस्स अवट्ठिदट्ठि दिसंतकम्मसमुप्पत्तीदो । चरमफालिहरणमेतवियप्पेसु दिअसंखेजगुणहाणि कम्मं सिए हिंतो कथमेगविपदिअवदिकम्मं सियाण मसंखे ० गुण तं १ ण एस दोसो, फालिट्ठाणेहिंतो अवद्विदवियप्पाणमसंखे० गुणत्तुवलंभादो । तं जहा — वेदगपाओग्गमिच्छाइड्डिणा सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लमाणेण विसोहीए मिच्छत्तस्स सव्वु कस्स कंडय घादं करेंतेण मिच्छत्तेण सह सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं विदिखंडयघादं काढूण तिन्हं कम्माणं ट्ठिदिसंतकम्मे सरिसत्तमुवगए वेदगसम्मते पडिवण्णे पढमो अवट्टिदवियप्पो । पुव्वद्विदिसंतादो समयुत्तरसम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मेण कालदो मिच्छत्तहिदिसमाणेण णिसेगे पडुच्च मिच्छत्तणिसेगेहिंतो रूवूणेण काकतालीयणाएण हिदिखंडयघादसमुप्पण्णेण सह वेदागसम्म गहिदे विदियो अवद्विदवियप्पो । एदम्हादो समयुत्तरसम्मत्तहि दिसंतकम्मेण कालदो मिच्छत्तहि दिसमाणेण णिसेगेहिंतो रूवूणेण खल्लविल्लसंजोगो व ट्ठिदिखंडयवादसमुपणेण वेदगसम्मत्ते गहिदे तदिओ अवद्विदवियप्पो । एवं णेदव्वं जाव अंतोऐसा हमारा निश्चय है, क्योंकि सर्वत्र आयलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार कहा है । * अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । ६५७२. क्योंकि सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वको देखते हुए एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर सम्यक्त्वके अवस्थितस्थितिसत्कर्मकी उत्पत्ति होती है । शंका — अन्तिम फालिस्थानप्रमाण विकल्पोंमें स्थित असंख्यात गुणहानिकर्म वाले जीवोंसे एक विकल्पमें स्थित अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे कैसे हो सकते हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि फालिस्थानोंसे अवस्थित विकल्प असंख्यातगुण पाये जाते हैं। खुलासा इस प्रकार है- सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला और विशुद्धिके बलसे मिथ्यात्वके सबसे उत्कृष्ट काण्डकघातको करनेवाला कोई वेदक सम्यक्त्वके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वके साथ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के स्थितिकाण्डकघातको करके जब तीन कर्मों के स्थितिसत्कर्मको समान करके वेदकसम्यकत्वको प्राप्त होता है तब उसके पहला अवस्थित विकल्प होता है । पूर्व स्थितिसत्त्वसे जिसके सम्यक्त्वका स्थितिसत्कर्म एक समय अधिक है, कालकी अपेक्षा जिसके सम्यकत्वकी स्थिति मिथ्यात्वकी स्थिति के समान है और निषेकों की अपेक्षा जिसके सम्यक्त्वके निषेक मिथ्यात्वके निषेकों से एक कम हैं उसके काकतालीय न्यायानुसार स्थितिकाण्डकघात के साथ वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर दूसरा अवस्थितविकल्प होता है । सम्यक्त्वके इस स्थितिसत्त्वसे जिसके सम्यक्त्वका स्थितिसत्कर्म एक समय अधिक है, कालकी अपेक्षा जिसके सम्यक्त्वकी स्थिति मिथ्यात्व के समान है और निषेकोंकी अपेक्षा जिसके सम्यक्त्वके निषेक मिथ्यात्वके निषेकोंसे एक कम हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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