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________________ २८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संखेजगुणवड्डिविसयादो संखे भागवड्डिविसए विसेसाहिए संते कथं संखेजगुणवड्डिविहत्तिएहिंतो संखे०भागवड्डिविहत्तियाणं संखेजगुणत्तं घडदे ? ण च जादिं पडि विणिग्गयजीवपडिभागेण पवेसो पत्थि त्ति वोत्तुं जुत्तं, बीइंदियादिरासीणं क्सेिसाहियत्तं फिट्टिदण अण्णावत्थावत्तीदो' ? एसो वि ण दोसो, जदि वि संखेजगुणवड्डिविसयादो संखेजभागवड्डिविसओ विसेसाहिओ चेव तो वि संखेजगुणवड्डिविहत्तिएहितो संखेजभागवड्डिविहत्तिया संखेजगुणा, संखेज भागवड्डिविसयं पविस्समाणजीहितो संखेजगुणवड्डिविसयं पविस्समाणजीवाणं संखेजगुणहीणत्तादो । संखेजभागवड्डिविसयादो चेव बहुआ जीवा पल्लट्टिदूण सगसगजादिं पविसंति त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव जइवसहमुहविणिग्गयअप्पाबहुअसुत्तादो । असंखे०पोग्गलपरियट्टसंचिदा वि-ति-चदुपंचिंदियजीवा एइंदिएसु पादेक्कमणंता अस्थि संखे०गुणवड्डिपाओग्गा । संखेजभागवड्डिपाओग्गा पुण असंखेजा चेव, पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण संचिदत्तादो। तेण संखेजभागवडिविहत्तिएहिंतोसंखेजगुणवविविहत्तिएहि असंखेजगुणेहि होदव्वमिदि? ण, आयाणुसारिवयस्स णायत्तादो । ण विवरीयकप्पणा जुञ्जदे, अव्ववत्थावत्तीदो। वे ही एक सागर कम होकर उनके संख्यातगुणवृद्धिकी विषय हैं । इस प्रकार उक्त क्रमसे संख्यातगुणवृद्धिके विषयसे संख्यातभागबृद्धिका विषय विशेष अधिक रहते हुए संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे कैसे बन सकते हैं ? और जातिकी अपेक्षा निकलनेवाले जीवोंके प्रतिभागके अनुसार प्रवेश नहीं है ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर द्वीन्द्रियादिक राशियोंकी विशेष अधिकता नष्ट होकर अन्य अवस्था प्राप्त होती है ? समाधान—यह भी दोष नहीं है, क्योंकि यद्यपि संख्यातगुणवृद्धिके विषयसे संख्यातभागवृद्धिका विषय विशेष अधिक ही है तो भी संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि संख्यातभागवृद्धिके विषयमें प्रवेश करनेवाले जीवोंसे संख्यातगुणवृद्धिके विषयमें प्रवेश करनेवाले जीव संख्यात गुणे हीन होते हैं। शंका-संख्यातभागवृद्धिके विषयसे ही लौटकर बहुत जीव अपनी अपनी जातिमें प्रवेश करते हैं यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान–यतिवृषभ आचार्यके मुख से निकले हुए इसी अल्पबहुत्व सूत्रसे जानी जाती है। शंका—असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंके द्वारा संचित हुए द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियोंमें प्रत्येक अनन्त हैं जो कि संख्यातगुणवृद्धिके योग्य हैं। पर संख्यातभागवृद्धिके योग्य असंख्यात ही जीव हैं, क्योंकि ये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा संचित हुए हैं। अतः संरयातभागवृद्धिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होने चाहिये ? समाधान नहीं, क्योंकि आयके अनुसार व्यय होता है ऐसा न्याय है। और १. ताप्रती अणवत्थावत्तीदो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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