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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २७९ विगलिंदिय-सण्णि-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापजत्तेसुप्पजमाणाणं विगलिंदिएहितो सण्णि-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापज्जत्तएसुप्पज्जमाणाणं च संखेजगुणवड्डेि कुणंताणं संखेजभागहाणिविहत्तिएहितो असंखे०गुणाणमुवलंभादो। तेसिमुप्पजमाणाणं संखेजभागहाणिविहत्तिएहिंतो असंखेजगुणत्तं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव जइवसहाइरियमुहकमलविणिग्गयचुण्णिसुत्तादो। सुत्तमण्णहा किण्ण होदि ? ण, राग-दोस-मोहाभावेण पमाणत्तमुवगयजइवसहवयणस्स असच्चत्त विरोहादो। जुत्तीदो वा णव्वदे । तं जहाबीइंदियादितसरासिमेकहं करिय तिण्हं वड्डीणं तिण्हं हाणीणमवहाणस्स य अद्धासमासेण भागे हिदे संखे०भागहाणिविहत्तिया होंति, एगसमयसंचयत्तादो । संख०गुणहाणिविहत्तिया वि एगसमयसंचिदा चेव होदृण संखे भागहाणिविहत्तिएहिंतो संखेजगुणहीणा जादा, सण्णिपंचिंदिएसुचेव संखे०गुणहाणीए संभवादो। तत्थ बि संखे०भागहाणिं संखेजवारं कादूण पुणो एगवारं सव्वसण्णिपंचिंदियजीवाणं संखे०गुणहाणिं कुणमाणाणमुवलंभादो च। संखेजभागहाणिविहत्तिया पुण तत्तो संखे गुणा होंति, सव्वतसरासीसु संभवादो संखेजभागहाणिपाओग्गपरिणामेसु बहुवारं परिणदभावुवलंभादो च । संपहि तसरासिमावलियाए असंखे०भागेण सगुवक्कमणकालेण खंडिदे और सज्ञो व असज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में उत्पन्न होते हैं और जो विकलेन्द्रियोंमेंसे संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होते हैं जो कि संख्यातगुणवृद्धिको करते हैं वे संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे असंख्यातगुणे पाये जाते हैं। शंका-ये उत्पन्न होनेवाले जीव संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यतिवृषभ आचार्यके मुखकमलसे निकले हुए इसी चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है। शंका-सूत्र अन्यथा क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि राग, द्वेष और मोहसे रहित होनेके कारण यतिवृषभ आचार्य प्रमाणभूत हैं, अतः उनके वचनको असत्य माननेमें विरोध आता है। ___ अथवा, संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं यह बात युक्तिसे जानी जाती है। जो इस प्रकार है-द्वीन्द्रियादिक त्रसराशिको एकत्र करके उसमें तीन वृद्धि. तीन हानि और अवस्थानके कालोंके जोड़का भाग देने पर संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव होते हैं, क्योंकि इनका संचय एक समयमें होता है। संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव भी एक समयद्वारा ही संचित होते हैं, फिर भी वे संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणे हीन होते हैं, क्योंकि संख्यातगुणहानि संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें ही संभव है। और वहांपर भी सब संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानिको संख्यात बार करके पुनः एक बार संख्यातगुणहानिको करते हैं। संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव तो इससे संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि सब त्रस राशियोंमें संख्यातभागहानि संभव है और संख्यातभागहानिके योग्य परिणाम बहुतबार होते हुए पाये जाते हैं। अब त्रसराशिको आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अपने उपक्रमणकालके द्वारा खण्डित करनेपर संख्यातगुणवृद्धि Jain Education International • For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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