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________________ गा०२२] वडिपरूवणाए अंतरं २१७ $ ३५०. दंसणाणुवादेण चक्खु. तसपज्जत्तभंगो। णवरि संखेजमागवड्डीए जह० एगसपओ णस्थि । अचक्खुदंसणीणमोघं । लेस्साणुवादेण किण्हणील-काउ० असंखेजभागड्डि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस सत्तसागरो० देसूणाणि । असंखेज्जभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । दोवड्डि-दोहाणीणं जहण्णमोघं, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि । एसा परूवणा मिच्छत्त-बारसक०णवणोकमायाणं । एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सत्तारस-सत्तमागरो० देसूणाणि । असंखेज्जगुणहोणि-अवत्तव्व० जह. अंत मु०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवडिदोहाणि-अवट्टि० जह० अंतोमु० । असंखेज्जगुणवडि-असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वाणं जह० पलिदो० असंखेजदिमागो । असंखेजभागहाणी० जह० एगम०, उक० सम्वेसि पि सगहिदी देसूणा। ६ ३५१. तेउ-पम्मलेस्सा० मिच्छत्त०-चारसक-णवणोक० असंखेज्जभागवडिअवढि० जह० एगस० । दोवड्डि-दोहाणी. जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसि पि वे-अट्टरस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । असंखेज्जभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतामु० । ६३५०. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भंग त्रसपर्याप्तकोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय नहीं है। अचक्षुरानवाले जीवोंके ओघके समान जानना चाहिए। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर ओघके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर है। यह प्ररूपणा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षासे की है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तराअन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, दो हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण तथा असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। ६३५१. पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कपाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है। मिथ्यात्वकी ૨૮ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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