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________________ २०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अट्ठारम सागरो० सादिरेयाणि । एवं भवणादि जाव सहस्सारो ति । गवरि सगसगु. कस्सहिदी वत्तव्वा । ६३३१. आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति मिच्छत्त-बारसक०•णवणोक० असंखेजभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । संखेजभागहाणी० जह० अंतोमुहु०, उक्क० सगद्विदी देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेजभागवाड्डि-संखेजमागहाणी० जह० अंतोमुहु० । असंखेज्जमागहाणी० जह० एगस। तिण्णिवड्डि-दोहाणि-अवत्तव० जह० पलिदो. असंखेज्जदिभागो। उक्क० सम्वेसि पि सगद्विदी देसूणा । अणंताणु०चउक० असंखेज्ज. भागहाणी० जह० एगम । तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० जह० अंतोमुहुः । उक० सव्वेसिं पि सगढिदी देसूणा । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । संखेज्जभागहाणी जहण्णुक० अंतोमुहुः । एवं सम्मामि० । सम्मत्त एवं चेव । णवरि संखेज्जगुणहाणीए णत्थि अंतरं । अणंताणु०. चउक्क० असंखेज्जभागहाणी. जहण्णुक ० एगस० । तिण्णिहाणी. जहण्णुक० अंतोमु०। अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। इसी प्रकार भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्पतक जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। ३३१. आनतकल्पसे लेकर उपरिम |वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। संख्यात. भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा तीन वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी अपेक्षा भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है तथा तीन हानियोंक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। - विशेषाथ-देवोंमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित ये पद बारहवें कल्पतक ही होते हैं, अतः इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है। तथा इनकी संख्यातभागहानि नौवें अवेयक तक होती है, इसलिये इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम ३१ सागर कहा है। यहाँ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना भी होती है, अतः अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातभागहानि आदि चार हानि और अवक्तव्यका उत्कृष्ट अन्तर. काल कुछ कम इकतीस सागर प्राप्त होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थितपदको छोड़कर शेष सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर घटित कर लेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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