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________________ १२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ धुवहिदीए किंचूणपलिदोवममेत्तभागहारत्तादो। एवं समयुत्तरदुसमयुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव दुगुणपलिदोवमसलागाओ वड्विदाओ त्ति । तत्थ वि असंखेजभागवड्डी चेव होदि । कुदो, धुवद्विदीए पलिदोवमस्स दुभागमेत्तभागहारत्तादो । एवं गंतूण पलिदोवमसलागमेत्तपढमवग्गमूलाणि वड्डिदूण बंधमाणस्स वि असंखेजभागवड्डी चेव होदि; तत्थ धुवद्विदीए पलिदोवमपढमवग्गमूलभागहारत्तादो। एवं धुवहिदिमागहारो कमेण विदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलं चउत्थवग्गमूलं च होदण पंचमवग्गमूलादिकमेण जहण्णपरित्तासंखेज पत्तो। ताधे वि असंखेजभागवड्डी चेव । पुणो एवं बड्डिदूणच्छिदद्विदीए उवरिमेगसमयं कड्डिदण बंधमाणस्स छेदभागहारो होदि । एसो छेदभागहारो केत्तियमेतमद्धाणं गंतूण फिदि त्ति वुत्ते वुच्चदे। जहण्णपरित्तासंखेजेण धुवहिदि खंडिय पुणो तत्थ एगखंडे उक्कस्ससंखेजेण खंडिदे तत्थ जत्तियागि रूवाणि रूवूणाणि तत्तियाणि रूवाणि जाव वड्दिण बंधदि ताव छेदभागहारो होदि। संपुण्णेसु वडिदेसु छेदभागहारो फिट्टदि; धुवद्विदीए उक्कस्ससंखेजमेत्तभागहारस्स जादत्तादो। - $ २२७. संपहि छेदभागहागे असंखेजसंखेजभागवड्डीसु कत्थ णिवददि ? ण ताव असंखेजभागवड्डीए; जहण्णपरित्तासंखेजादो हेहिमसंखाए असंखेजत्ताभावादो। भावे वा जहण्णपरित्तासंखेजस्स जहण्णविसेसणं फिट्टदि ; तत्तो हेट्टा वि असंखेजस्स संभवादो। ण संखेजभागवड्डीए; उकस्ससंखेजादो उवरिमसंखाए संखेजत्तविरोहादो। अविरोहे वा स्थितिका भागहार कुछ कम पल्य है। इसी प्रकार एक समय अधिक, दो समय अधिक आदि क्रमसे एक ध्रुवस्थितिके पल्योंसे दूनी शलाकाओंकी वृद्धि होने तक स्थितिको बढ़ाते जाना चाहिये । यहाँ पर असंख्यातभागवृद्धि ही होती है; क्योंकि यहाँपर ध्रवस्थितिका भागहार पल्यका द्वितीय भाग है। इसी प्रकार आगे जाकर पल्योपमकी जितनी शलाकाएं हैं उतने प्रथम वर्गमूलप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बांधनेवाले जीवके भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। क्योंकि वहाँपर ध्रवस्थितिका भागहार पल्योपमका प्रथम वर्गमूल है। इस प्रकार ध्रवस्थितिका भागहार क्रमसे द्वितीय वर्गमूल, तृतीय वर्गमल और चतुर्थ वर्गमल होता हा पांचवाँ वर्गमल आदि क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातको प्राप्त होता है। वहाँ पर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है । पुनः इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुई स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवके छेदभागहार होता है। यह छेदभागहार कितने स्थान जाकर समाप्त होता है ऐसा पूछनेपर कहते हैं-जघन्य परीतासंख्यातका ध्रवस्थितिमें भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उसे उत्कृष्ट संख्यातसे भाजित करनेपर वहाँ जितनी संख्या प्राप्त हो एक कम उतने अंकप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बांधने तक छेदभागहार होता है और संपूर्ण अंकप्रमाण बढ़ाकर स्थितिको बांधनेपर छेदभागहार समाप्त होता है; क्योंकि यहाँ ध्रवस्थितिका उत्कृष्ट भागहार उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण हो जाता है। ६२२७. अब छेदभागहारका असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि इन दोनोंमें से किसमें समावेश होता है ? असंख्यात भागवृद्धि में तो होता नहीं, क्योंकि जघन्य परीतासंख्यातसे नीचे की संख्या असंख्यात नहीं हो सकती। यदि वह असंख्यात मान ली जाय तो जघन्यपरीतासंख्यातका असंख्यात यह विशेषण नष्ट होता है, क्योंकि उसके नीचे भी असंख्यातकी संभावना मान ली गई। तथा संख्यातभागवृद्धिमें भी उसका समावेश नहीं होता, क्योंकि उत्कृष्ट संख्यातसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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