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________________ १०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ मिच्छादिट्ठीणं धुवबंधएहितो अणंतगुणत्तं जुत्तीदो णव्वदे । तं जहा-वासपुधत्तमंतरिय जदि संखेज्जा उवसंतचरा मिच्छत्तं पडिवजमाणा लभंति तो उबड्डपोग्गलपरियभंतरे केसिए लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुणिदफले ओवट्टिदे सादियबंधयाणं रासी होदि । संखेजावलियाओ अंतरिय जदि पलिदो० असंखे०भागमेत्ता सम्मादिद्विणो मिच्छत्तं पडिवजमाणा लब्भंति तो उवड्डपोग्गलपरियट्टम्मि किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुणिदफले ओवट्टिदे सम्मत्तचरमिच्छादिद्विरासी होदि । एसो पुबिल्लरासीदो असंखेजगुणो; असंखेजगुणफलत्तादो। एसो च रासी सव्वकालमवद्विदो; चदुगदिणिगोदरासिं व आयाणुसारिवयत्तादो। णासिद्धो दिटुंतो; अट्टत्तरछस्सदजीवेसु चदुगदिणिगोदेहितो णिव्वाणं गदेसु णिचणिगोदेहितो चदुगदिणिगोदेसु एत्तिया चेव जीवा अट्ठसमयाहियछम्मासंतरेण पविस्संति ति परमगुरूवदेसादो। जदि ण पविस्संति तो को दोसो ? चदुगदिणिगोदाणमायवजियाणं सव्वयाणं खओ होज; असंखेजलोगमेत्तपोग्गलपरियट्टपमाणत्तादो। ते तत्तियमेत्ता त्ति कुदो णव्वदे ? जुत्तीदो। तं जहा-एकम्हि समए जदि असंखेजलोगमेत्ता पत्तेयसरीरा चदुगदिणिगोदसरूवेण पविसमाणा लब्भंति, तो जीव अनन्तगुणे होते हैं यह जाना जाता है। परन्तु जिन्होंने पहले सम्यक्त्वको प्राप्त किया ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव ध्रुवबन्धक जीवोंसे अनन्तगुणे हैं यह बात युक्तिसे जानी जाती है। जो युक्ति इस प्रकार है-वर्षपृथक्त्वके अन्तरालसे यदि संख्यात उपशान्तचर जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होते हुए पाये जाते हैं तो उपाधपुद्गलपरिवर्तन कालके भीतर कितने जीव प्राप्त होते हैं इस प्रकार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके जो लब्ध भावे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर सादिबन्धक जीवराशि प्राप्त होती है। तथा संख्यात प्रावलियोंके अन्तरालसे यदि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होते हुए पाये जाते हैं तो उपार्धपुद्गलपरिवर्तन कालके भीतर कितने प्राप्त होंगे इस प्रकार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर सम्यक्त्वचर मिथ्यादृष्टि जीवराशि प्राप्त होती है । यह जीवराशि पूर्वोक्त जीवराशिसे असंख्यातगुणी है; क्योंकि इसका गुणनफल पूर्वोक्तराशिसे असंख्यातगुणा है। यह जीवराशि सर्वदा अवस्थित है, क्योंकि जिस प्रकार चतुर्गति निगोद जीवराशिका आयके अनुसार व्यय होता है उसी प्रकार इस राशिका भी आयके अनुसार ही व्यय होता है। यदि कहा जाय कि दृष्टान्त प्रसिद्ध है सो भी बात नहीं है क्योंकि चतुर्गतिनिगोदसे निकलकर छहसौ आठ जीवोंके मोक्षको चले जानेपर नित्यनिगोदसे उतने ही जीव छह महीना और आठ समयके अन्तरसे चतुर्गति निगोदमें प्रवेश करते हैं ऐसा परम गुरुका उपदेश है। शंका-यदि नित्यनिगोदसे उतने जीव चतुर्गतिनिगोदमें प्रवेश न करें तो क्या दोष है ? समाधान यदि उतने जीव प्रवेश न करें तो आयरहित और व्ययसहित होनेके कारण चतुर्गतिनिगोद जीवोंका क्षय हो जायगा, क्योंकि असंख्यात लोक प्रमाण पुद्गलपरिवर्तनके जितने समय हैं उतना चतुर्गति निगोद जीवोंका प्रमाण है । शंका-चतुगंतिनिगोद जीव इतने हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-युक्तिसे जाना जाता है। वह इस प्रकार है-एक समयमें यदि असंख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीर जीव चतुर्गतिनिगोदरूपसे प्रवेश करते हुए पाये जाते हैं तो ढाई पुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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