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________________ ४५ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए कालो ७८. वेदाणुवादेण इत्थिवेदे० मोह० जह० जहण्णुक्क० एगसमयो । अज० ज० एगसमओ, उक्क० सगहिदी। पुरिस० मोह० जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एगसमत्रो । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगढिदी। - - - - - - - - कहा । तथा पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बन जाता है। औदारिककाययोगमें अजघन्य स्थितिके उत्कृष्टकाल में विशेषता है। बात यह है कि औदारिककाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है अतः इसमें अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। शेष कथन मनोयोगियों के समान है। वैक्रियिककाययोगमें भी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल मनोयोगके समान जानना। किन्तु जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीसे सर्वार्थसिद्धिमें जाता है उसके भवके अन्तिम समयमें यदि वैक्रियिककाययोग हो तो वैक्रियिककाययोगमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है, अतः वैक्रियिककाययोगमें इस प्रकार जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय घटित करके कहना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोगके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका प्राप्त होना सम्भव है, अतः इसमें जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा। तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसमें अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त कहा । काययोगमें जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मनोयोगके समान घटित कर लेना चाहिये । काययोगमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है। इसका कारण यह बतलाया है कि जिस समय जवन्य स्थिति हुई उसके उपान्त्य समयमें यदि काययोग हो तो काययोगमें अजघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। उदाहरणार्थ दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति होती है । वह यदि अन्तिम दो समयके लिये काययोगी हो जाय तो काययोगमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। काययोगका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है, अतः इसमें अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा। काययोगियोंके समान नपुंसकोंके कथन करना चाहिये। किन्तु क्षपक नपुंसकके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है इतना विशेष जानना। आहारक काययोगमें मनोयोगीके समान जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल पाया जाता है । किन्तु इतना विशेष है कि आहारक काययोगके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। शेष कथन सुगम है। ७८. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पुरुषवेदी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-क्षपकके स्त्रीवेदके उदयके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए, अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । उपशम श्रेणीसे उतर कर जो जीव एक समयके लिये स्त्रीवेदी हुआ और दूसरे समयमें मरकर देव हो गया उसके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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