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________________ ३८४ गयधवलासहिदेकसायपाहुडे . [डिदिविहत्ती ३ अवगद०-अकसाय०-मणपज्ज-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०- सुहुम०-जहाक्खादसंजदे त्ति । ६४१. एइदिएमु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० अज० सव्वलोगो। सम्मत्त-सम्मामि० ज० अज० अणुक्कस्सभंगो । एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज०-मुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादराउ०-बादराउअपज्ज०सुहुमाउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ० - बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ० - बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज-सुहुमवाउ०-मुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद० - बादरवणप्फदि०समान भंग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, नौ नोकषाय और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति किसी खास अवस्थामें ही प्राप्त होती है और सबके सम्भव नहीं अतः इनकी जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है और इसलिये इसे क्षेत्रके समान बतलाया है। परन्तु अजघन्य स्थितिके लिये ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है अतः उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिवालोंका वही स्पर्श प्राप्त हो जाता है जो सामान्य देवोंका बतलाया है। यही बात सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके लिये समझ लेना चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके समय होती है पर ऐसे समय एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात सम्भव नहीं अतः इनकी जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजु बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है। यह सामान्य देवोंमें स्पर्श हुआ। इसी प्रकार देवोंके प्रत्येक भेदमें अपनी अपनी विशेषताको जान कर स्पर्श जान लेना चाहिये । कहां कितना स्पर्श है इसका निर्देश मूलमें किया ही है। कोई विशेषता न होनेसे उसका खुलासा नहीं किया है। हां भवनत्रिकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते अतः उनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सम्यग्मिथ्यात्वके समान बतलाया है । यहां 'एवं' कह कर जो वैक्रियिकमिश्र आदिमें स्पर्शका निर्देश किया है सो उसका यह मतलब है कि जिस प्रकार नौ ग्रैवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है उसी प्रकार इन वैक्रियिकमिश्र आदि मार्गेणाओंमें अपने अपने क्षेत्रके समान स्पर्श जानना चाहिये। ६४१. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके स्पर्शका भंग अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्य वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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