SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहाची ३ ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । चत्तारिणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अणंतकाल । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० एगावलिया। एसो चुण्णिसुत्तउवएसो। उच्चारणाए पुण बे उवएसा- एगावलिया आवलियाए असंखेजदिभागो चेदि । पडिहग्गसमए चेव जे आइरिया चदुणोकसायाणं बंधो होदि ति भणंति तेसिमहिप्पाएण एगावलियमेत्तो चदुणाकसायाणमणुक्कस्सहिदीए उक्कस्संतरकालो। पडिहग्गपढमसमयप्पहुडि आवलियाए असंखेज्जेसु भागेसु गदेसु असंखे० भागावसेसे चदुणोकसाया बझति त्ति जे आइरिया भणंति तेसिमहिप्पारण अणुक्कस्सहिदीए उकस्संतरं आवलियाए असंखे० मागो । एवमचक्खु०-भवसिद्धि० । AMArwarrare उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक आवली काल है। चार नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल एक आवलीप्रमाण है यह उपदेश चूर्णिसूत्रके अनुसार है। उच्चारणाकी अपेक्षा तो दो उपदेश पाये जाते हैं। एक उपदेश एक आवली कालका है और दूसरा उदेश आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका हे। जो आचार्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे निवृत्त होकर तदनन्तर समयमें ही चार नोकषायों का बन्ध होता है ऐसा कहते हैं उनके अभिप्रायानुसार चार नाकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल एक आवलिप्रमाण प्राप्त होता है। तथा जो आचाय उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे निवृत्त होकर पहले समयसे कर आवलिके असंख्यात बहुभाग कालको बिताकर असख्यातवें भागप्रमाण काल के शेष रहन पर चार नोकषायोंका बन्ध होता है ऐसा कहते हैं उनके अभिप्रायानुसार चार नोकषायों की अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार चक्षुदशनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्टा अन्तरका खुलासा मूलमें किया ही है, अतः यहां अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और, उत्कृष्ट अन्तरक खुलासा किया जाता है। जब किसी जीवके एक समय तक मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है तब उसके उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। तथा जब किसीके मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध अन्तमहर्तकाल तक होता है तब उसके उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त पाया जाता है। जो जीव सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके तीसरे समयमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्वात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है । तथा जो जीव अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके और मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता है। पुनः अर्धपुद्गल परिवर्तन कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण पाया जाता है। जिसने अनन्ता. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy