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________________ ३१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अंतरिय पुणो तदियसमए णोकसाएसु बंधावलियाइक्कंतकसायुक्कस्सहिदीए संकंताए एगसयमेनंतरुवलंभादो।। * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणमुक्कस्सहिदिसंतकम्मियंतरं जहगणेण अंतोमुहुत्त। ५४१. कुदो ? मिच्छत्तुक्कस्सहिदिसंतकम्मेण वेदगसम्मत्त पडिवण्णपढमसमए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदिसंतकम्मं कादण विदियसमए अणुक्कस्सद्विदि गंतूणंतरिय सव्वजहण्णसम्मत्नकालमच्छिय मिच्छत्तेण परिणमिय पुणो उक्कस्सहिदि बंधिय अंतोमुहुत्त पडिहग्गो होदणच्छिय वेदगसम्मत्तपाओग्गमिच्छत्तुक्कस्सहिदिसंतकम्मेण वेदगसम्मत्त पडिवण्णे सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदिसंतकम्ममुवगयस्स उक्कस्सहिदीए अंतोमुहुत्तमेत्तजहण्णंतरुवलंभादो । * उक्कस्समुवड्डपोग्गलपरियट्ट। $ ५४२. तं जहा एगो अणादियमिच्छाइट्टी छब्बीससंतकम्मियो उपसमसम्मत्त पडिवण्णो । पुणो उत्रसमसम्मत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्त' गंतूण उक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गो होदूण हिदिघादमकरिय वेदगसम्मत्त घेत्तण सम्मत्तप्रारम्भ हुआ। तथा जो दूसरे समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको अन्तरित करके पुनः तीसरे समयमें बन्धावलिके पश्चात् कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको नोकषायोंमें संक्रान्त करता है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय प्रमाण पाया जाता है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। . ६ ५४१. शंका-जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कैसे है ? समाधान-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले किसी एक जीवने वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किया। तदनन्तर वह दूसरे समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हुआ और इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका अन्तर करके सबसे जघन्य सम्यक्त्वके काल तक वहाँ रहा। तदनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहाँ पुनः मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर और संक्लेश परिणामोंसे च्युत हो विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ अन्तमुहूर्त कालतक वहाँ रहा। तदनन्तर वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला वह जीव जब वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है तब पुनः उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है और इस प्रकार उस जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ठ स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । * उत्कृष्ट अन्तर उपाधेपुद्गल परिवतेनप्रमाण है। ६५४२. वह इस प्रकार है-छब्बोस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः वह उपशमसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर मिथ्यात्व में गया और वहाँ मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर और संक्लेश परिणामोंसे च्युत होकर स्थितिघात न करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः वहाँ सम्यक्त्व और सम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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