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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअर्धवाणुगमो ২২৩ श्रद्धाच्छेदो पुण उक्कस्सकालुवलक्खियएगणिसेगाविणाभाविसबणिसेयकलाओ तेण [ण ] पविसदि त्ति घेत्तव्वं । एवं जहण्णहिदि-जहण्णहिदिअद्धाछेदाणं पि भेदो परूवेदव्यो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । ___४०४. सादि-अणादि-धुव-अद्ध वाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० उक्क० अणुक्क० जह० किं सादि०४। सादि अद्ध बं । अजह• किं सादि० ४ ? अणादिओ धुबो अद्ध वो वा । सम्मत्तपविस्सदि ? ण, उक्कस्सहिदिविहत्ती णाम उक्कस्सकालुवलक्खियएगणिसेगो उक्कस्स शंका-उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका अन्तर्भाव क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट कालसे उपलक्षित एक निषेकको उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहते हैं परन्तु उत्कृष्ट अद्धाच्छेद तो उत्कृष्ट कालसे अलक्षित एक निषेकके अविनाभावी समस्त निषेकोंके समुदायका नाम है, इसलिये उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका अन्तर्भाव नहीं होता है ऐसा ग्रहण करना चाकिये । इसी प्रकार जघन्य स्थिति और जघन्य स्थिति अद्धाच्छेदके भेदका भी कथन करना चाहिये । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये। विशेषार्थ-किसी एक मनुष्यके चार बेटे हैं। उनमें से सबसे बड़ा बेटा ज्येष्ठ या उत्कृष्ट, शेष अनुत्कृष्ट, सबसे छोटा बेटा लघु या जघन्य और शेष अजघन्य बेटे कहे जायंगे। यही बात स्थितिके विषयमें भी जाननी चाहिये । अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिसे सबसे अन्तिम निषेककी स्थिति ली जायगी। अनुत्कृष्ट स्थितिसे अन्तिम निषेककी स्थितिको छोड़कर शेष सब निषेकोंकी स्थितियां ली जायगी। जघन्य स्थितिसे सबसे कम स्थिति ली जाती है तथा अजघन्य स्थितिसे सबसे कम स्थितिको छोड़ कर शेष सब स्थितियां ली जाती हैं। इस प्रकार इस कथनसे यह भी जाना जाता है कि इन चारों प्रकारके स्थिति भेदोंमें अवयवकी मुख्यता है समुदायकी नहीं। अतः सर्व स्थितिमें समुदायरूपसे सब स्थितियोंका ग्रहण हो जाता है और नोसर्वस्थितिमें अविवक्षित किसी एक या एकसे अधिक निषेकोंकी स्थितियोंको छोड़ कर शेष स्थितियोंका ग्रहण हो जाता है। यहां यह शंका की जा सकती है कि यद्यपि उत्कृष्ट स्थिति अवयव प्रधान है अतः उससे सर्वस्थिति भिन्न सिद्ध हो जाती है पर अनुत्कृष्ट और अजघन्य स्थितिसे नोसर्व स्थिति कैसे भिन्न सिद्ध हो सकती है, क्योंकि इन तीनोंमें ऊन स्थितियों को ही ग्रहण किया गया है। पर ठीक तरहसे विचार करने पर यह शंका निमूल हो जाती है, क्योंकि जिस प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिमें केवल उत्कृष्ट स्थितिका और अजघन्य स्थितिमें केवल जघन्य स्थितिका अभाव इष्ट है वह बात नोसर्वस्थितिकी नहीं है किन्तु इसमें अविवक्षित किसी भी निषेककी स्थितिका प्रभाव इष्ट है । उदाहरणके लिये ऊपरके मनुष्यसे कहा जाय कि तुम अपने कुछ वेटोंको बुलाओ तो वह किसी भी बेटेको बुलानेसे छोड़ सकता है । यही बात नोसर्वं स्थितिके विषयमें जानना चाहिये। इस प्रकार ओघ और आदेशकी अपेक्षा जहां जो स्थिति सम्भव हो, जानकर उसका कथन करना चाहिये। ४८४ सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थिति विभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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