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________________ nawwarwwwrarwal MPAN १३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिबिहती ३ २४६. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण तिएिण वड्डी अवहाणाणि कस्स ? मिच्छादिहिस्स । तिण्णि हाणीअो कस्स ? सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । असखे गुणहाणी कस्स ? आणियट्टिखवयस्स। एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि -[ काय.-] ओरालिय०-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारित्ति। ६ २५० आदेसेण णेरहएसु तिएिण वड्डी अवहा. कस्स ? मिच्छादिहिस्स । तिणि हाणी कस्स ? सम्मादिहि० मिच्छादिहिस्स वा। एवं सव्वणिरय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-वेउव्विय-असंजद-पंचलेस्सा त्ति । पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है उसके तीनों हानियां बन जाती हैं। पांचों स्थावरकायिक जीवोंमें भी इसी प्रकार जानना। विकलत्रयोंमें जघन्य स्थितिबन्धसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण अधिक है अतः यहाँ वृद्धिरूपसे संख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि ये दो वृद्धियां ही सम्भव हैं, क्योंकि जब कोई विकलत्रय अपनी पूर्व समयमें बंधनेवाली स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक स्थितिको बांधता है तब उसके असंख्यात भागवृद्धि होती है और जब वह अपनी पूर्व समयमें बंधनेवाली स्थितिसे संख्यातवें भाग अधिक स्थितिको बांधता है तब उसके संख्यातभागवृद्धि होती है । तथा इनके तीन हानियोंका खुलासा एकेन्द्रियोंके समान कर लेना चाहिये। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें मोहनीयकी स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है और यहाँ स्थितिकाण्डकघात न होकर अधःस्थितिगलनाके द्वारा एक एक निषेकका ही गलन होता है अतः यहां एक असंख्यात भागहानि ही सम्भव है । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । अपगतवेदमें असंख्यात भागहानि उपशमक और क्षपक किसी भी जीवके बन जाती है पर संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानि क्षपकके ही बनती है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना । आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जीवोंके चारों हानियां सम्भव हैं यह स्पष्ट ही है। इस प्रकार समुत्कीर्तनानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६२४६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैं-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा तीन वृद्धियाँ और अवस्थान किसके होते हैं? मिथ्याष्टिके होते हैं। तीन हानियाँ किसके होती हैं ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होती हैं। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अनिवृत्तिकरणक्षपकके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, बस, बस पर्याप्तक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।। ६ २५.०. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में तीन वृद्धियां और अवस्थान किसके होते हैं ? मिथ्यादृष्टिके होते हैं । तीन हानियाँ किसके होती हैं ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती हैं। इसी प्रकार सभी नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंचत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, वैक्रियिककाययोगी, असंयत और कृष्णादि पाँच लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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