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________________ गा० २२] मूलपयडिविहत्तीए भंगविचश्रो लिय०-संजद०--सुक्कले०-भवसिद्धिय०-सम्मादि०-[खइयसम्माइष्ठि-] आहारि०-अणाहारएत्ति वत्तव्यं । ६६. मणुसअपज० सिया विहत्तिओ सिया विहत्तिया। एवं वेउव्वियमिस्स०आहार-आहारमिस्स०-सुहुम०-उवसम०-सासण०-सम्मामिच्छादिष्टि त्ति वत्तव्यं । बेमण- बेवचि. सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च, एवं तिण्णि भंगा । एवमोरालियमिस्सै०-[कम्मइय०]-आभिणि०-सुद०-ओहि०-मणपज्जव०-चक्खु०- अचक्खु०- ओहिदसण-सण्णि और ये ही तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, आहारक और अनाहारकके कहना चाहिये । अर्थात् उक्त मार्गणा वाले जीव नियमसे मोहनीय कर्मसे युक्त भी होते है और मोहनीय कर्मसे रहित भी होते हैं। विशेषार्थ-ग्यारहवें गुणस्थान तक सभी जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं और क्षीणकषायसे लेकर सभी जीव मोहनीय कर्मसे रहित होते हैं। उपर्युक्त मार्गणाओंमें ग्यारहवेंसे नीचेके और ऊपरके गुणस्थान संभव है अतः उनमें सामान्य प्ररूपणाके अनुसार मोहनीय कर्मसे युक्त और मोहनीय कर्मसे रहित जीव बन जाते हैं । ६६६. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें कदाचित् एक जीव मोहनीय विभक्तिवाला है और कदाचित् अनेक जीव मोहनीयविभक्तिवाले हैं। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोके कथन करना चाहिये । विशेषार्थ-ऊपर जितनी मार्गणाएं कही हैं वे सब सान्तर हैं। अर्थात् उक्त मार्गणावाले जीव कभी होते और कभी नहीं होते । जब इन मार्गणाओंमें जीव होते हैं तो कभी एक जीव होता है और कभी अनेक जीव होते हैं। इसी अपेक्षासे उक्त मार्गणाओंमें मोहनीय कर्मसे युक्त एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग कहे हैं। असत्य और उभय इन दो मनोयोगी और इन्हीं दो वचन योगी जीवों में कदाचित् सभी जीव मोहनीय विभक्तिवाले हैं। कदाचित् बहुत जीव मोहनीय विभक्तिवाले और एक जीव मोहनीय अविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव मोहनीय विभक्तिवाले और बहुत जीव मोहनीय अविभक्तिवाले हैं । इस प्रकार तीन भंग होते हैं। इसीप्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कथन करना चाहिये । विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगको छोड़कर ऊपर जितनी (१)-दि (त्रु०...६ ) आ-स०, दिट्ठि० सासण० मा-अ०, आ०। (२)-स्स (त्रु०...४) आ-स०।-स्स० वेउविवयमिस्स. आ-अ०,आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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