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________________ २८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ५०. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मोहविहत्ती केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं उकस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । पंचिंदियतिरिक्खनरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-नरकमें मोहनीयकर्मका एक जीवकी अपेक्षा कहां कितने काल तक सत्त्व पाया जाता है इसका विचार किया गया है। सामान्यसे नरकमें एक जीवकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है, अतः सामान्यसे एक जीवकी अपेक्षा मोहनीयके सत्त्वका जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर होता है। पर प्रत्येक पृथिवीकी अपेक्षा विचार करने पर जहां जितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति है वहां मोहनीयकर्मका सत्त्व भी एक जीवकी अपेक्षा उतने काल तक समझना चाहिये । अर्थात् इतने काल तक वह जीव विवक्षित नरकमें रहता है उसके बाद दूसरी गतिमें चला जाता है, इसलिये वहां उस जीवकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका सत्त्व उतने कालतक ही कहा गया है। आगे जहां भी एक जीवकी अपेक्षा काल बतलाया है वहां भी यही अभिप्राय समझना चाहिये। ५०. तियचगतिमें तियचोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनों में जितने समय हों उतना है। विशेषार्थ-एक जीवके तिचगतिमें रहनेका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है जो अनन्त कालके बराबर होता है। जब कोई एक मनुष्य जीव लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचमें सबसे जघन्य आयु खुद्दाभवग्रहणको लेकर उत्पन्न होता है और आयुके समाप्त हो जाने पर पुनः मनुष्यगतिमें चला जाता है तब तिर्यचगतिमें रहनेका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्राप्त होता है। तथा जब कोई एक जीव अन्य गतिसे आकर तिर्यंचगतिमें ही निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है तो उस जीवके तिर्यचगतिमें रहनेका काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंसे अधिक नहीं होता है, इसके बाद वह नियमसे अन्य गतिमें चला जाता है, इसलिये एक जीवके तिथंच गतिमें निरन्तर रहने का उत्कष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्राप्त होता है। इसी विवक्षासे तिर्यंचगतिमें एक जीवकी अपेक्षा मोहनीयका जघन्य और उत्कष्ट सत्त्व क्रमसे खुद्दाभवग्रहण और असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनरूप कहा है । तियंचगतिमें ऐसे भी अनन्तानन्त जीव हैं जिन्होंने अभी तक दूसरी पर्याय प्राप्त नहीं की है और न आगे करेंगे। यद्यपि उनकी अपेक्षा तिथंचगतिमें मोहनीयका काल अनादि-अनन्त होता है। पर वह काल यहां विवक्षित नहीं है, क्योंकि काल प्ररूपणामें सादि-सान्त कालकी अपेक्षा विचार किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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