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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ वमाणि देसूणाणि, बे अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । सेसपयडीणं णत्थि अंतरं । सण्णि० पुरिसंवेदमंगो। आहारि० सम्मत्त-सम्मामि विहत्ति० अंतरं जह० एग समओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे०भागो। अणंताणुवंधिचउक्क० विहत्ति० ओघभंगो। एवमंतरं समत्तं ।। ६१४२. सणियासो दुविहो ओषो आदेसो दि । तत्थ ओघेण मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ । बारसकसाय-णवणोक० णियमा विहत्तिओ। सम्मत्तस्स जो विहत्तिओ अठारह सागर है। शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अन्तर एक समय तथा अनन्तानुबन्धीके जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तका कथन जिस प्रकार पहले कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । तथा छहों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन अशुभ लेश्याओंमें नरकगतिकी अपेक्षा और तीन शुभ लेश्याओंमें देवगतिकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि इतने दीर्घकाल तक एक लेश्या वहां ही रहती है। संज्ञी मार्गणामें सम्यक्प्रकृति आदि छह प्रकृतियोंका अन्तरकाल पुरुषवेदके समान है । आहारक जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल ओघके समान है।। विशेषार्थ-संज्ञीजीवोंमें सम्यक्प्रकृति आदि छह प्रकृतियोंका अधिकसे अधिक अन्तरकाल पुरुषवेदियोंके ही पाया जाता है, अतः संज्ञीमार्गणामें पुरुषवेदके समान अन्तरकाल कहा । आहारक जीवका सर्वदा आहारक रहते हुए निरन्तर उत्पन्न होनेका काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, तथा इतने काल तक आहारकजीव निरन्तर मिथ्यात्वमें भी रह सकता है इसलिये इसके सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा सामान्यसे अनंतानुबंधी चतुष्कका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है वह आहारकजीवके बन जाता है इसलिये इसके अनंतानुबंधी चतुष्कका उत्कृष्ट अंतरकाल ओघके समान कहा। उक्त छहों प्रकृतियोंके जघन्य अन्तरकालका कथन सुगम है। इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६१४२.सनिकर्ष अनुयोगद्वार ओघ और आदेशके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा जो जीव मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। परन्तु उसके बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्ति नियमसे है। जो जीव सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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