SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२ ) उनके स्थान में 'ऐसा करके उन्हें वैसा ही छोड़ दिया गया है। त्रुटित स्थलों की पूर्ति के लिए [ ] इस प्रकार के ब्रेकिटका उपयोग किया है। जहां त्रुटित पाठ नहीं भी भरे गये हैं वहां अनुवाद में संदर्भ अवश्य मिला दिया गया है ताकि पाठकोंको विषय के समझने में कठिनाई न जाय । (२) जहां ताड़पत्र और सहारनपुरकी प्रतिमें त्रुटित पाठके न होते हुए भी अर्थकी दृष्टिसे नया पाठ सुचाना आवश्यक जान पड़ा है वहां हम लोगोंने मूल पाठको जैसाका तैसा रखकर संशोधित पाठ [ ] इस प्रकार के ब्रेकिटमें दे दिया है । (३) मुद्रित प्रतिमें पाठक कुछ ऐसे स्थल भी पायेंगे जो अर्थकी दृष्टिसे असंगत प्रतीत हुए इसलिए उनके स्थान में जो शुद्ध पाठ सुचाये गये हैं वे ( ) इस प्रकार गोल ब्रेकिट में दे दिये हैं । (४) मूडविद्रीकी प्रतिमें अनुयोगद्वारोंका कथन करते समय या अन्य स्थलों में भी मार्गणा स्थान आदि नामोंका या उद्धृत वाक्योंका पूरा उल्लेख न करके ० इसप्रकार गोल विन्दी या = इस प्रकार बराबरका चिन्ह बना दिया है । दूसरी प्रतियां इसकी नकल होनेसे उनमें भी इसी पद्धति को अपनाया गया है । अतः मुद्रित प्रतिमें भी हम लोगोंने जहां मूडविद्रीको प्रतिका संकेत मिल गया वहां मूडविद्रीकी प्रतिके अनुसार और जहां वहांका संकेत न मिल सका वहां सहारनपुरकी प्रतिके अनुसार इसी पद्धतिका अनुसरण किया है । यद्यपि इन स्थलोंकी पूर्ति की जा सकती थी । पर लिखनेकी पुरानी पद्धति इस प्रकार की रही है इसका ख्याल करके उन्हें उसी प्रकार सुरक्षित रखा । (५) शेष संशोधन आदिकी विधि धवला प्रथम भाग में प्रकाशित संशोधन संबन्धी नियमों के अनुसार वर्ती गई है पर उसमें एकका हम पालन न कर सके। सौरसेनी में शब्दके श्रादिमें नहीं आये हुए 'थ' के स्थान में 'घ' हो जाता है । जैसे, कथम् कथं । धवला में प्रायः इस नियमका अनुसरण किया गया है । पर मूडविद्रीसे मिलान करानेसे हम लोगों को यह समझ में आया कि वहां 'थ' के स्थान में 'थ' 'ध' दोनोंका यथेच्छ पाठ मिलता है अतः हमें जहां जैसा पाठ मिला, रहने दिया उसमें संशोधन नहीं किया । (६) कोष के अनुसार प्राकृत में वर्तमान कालके अर्थ में 'संपदि' जयधवला में प्रायः सर्वत्र 'संपहि' शब्दका ही प्रयोग पाया जाता है। पृष्ठ ५ पर सिर्फ एक जगह संपहिके स्थान में गोल ब्रेकिट में 'संपदि' 'संपहि' ही रहने दिया है । } (७) यद्यपि पाठभेद सम्बन्धी टिप्पण ता० स० अ० और आ० प्रतियों के आधार से दिये हैं। पर ता० प्रतिके पाठ भेदका वहीं उल्लेख किया है जहां उसके सम्बन्ध में हमें स्पष्ट निर्देश मिल गया है अन्यत्र नहीं । संशोधनके इस नियमका अधिकतर उपयोग ब्रेकिट में नया शब्द जोड़ते समय या किसी अशुद्ध पाठके स्थान में शुद्ध पाठ सुचाते समय हुआ है । शब्द आता है पर धवला इसलिए हमने मुद्रित प्रतिके पाठ सुचाया है । अन्यत्र (८) ता० और स० प्रतिमें जहाँ जितने अक्षरोंके त्रुटित होनेकी सूचना मिली वहाँ उनकी संख्याका निर्देश टिप्पण में (त्रु) इस संकेत के साथ कर दिया है। ऐसे स्थलमें यदि कोई नया पाठ सुचाया गया है तो इस संख्याका यथासंभव ध्यान रखा है । अनुवाद - अनुवाद में हमारी दृष्टि मूलानुगामी अधिक रही है पर कहीं कहीं हम इस नियमका सर्वथा पालन न कर सके । जहाँ विषयका खुलासा करनेकी दृष्टिसे वाक्यविन्यास में फेरबदल करना आवश्यक प्रतीत हुआ वहाँ हमने भाषा में थोड़ा परिवर्तन भी कर दिया है । तात्पर्य यह है कि अनुवाद करते समय हमारी दृष्टि मूलानुगामित्व के साथ विषयको खोलने की भी रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy