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________________ ४६.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, ३१. मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ३१ ॥ सुगमं । __ मोहणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी सत्तरि-चत्तालीसं-वीसं-पण्णारस-दस-सागरोवमकोडाकोडीयो समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए' ॥३२॥ मिच्छत्तस्स सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीयो, सोलसण्णं कसायाणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, अरदि-सोग-भय दुगुंछा-णqसयवेदाणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीयो, इथिवेदस्स पण्णारस सागरोवमकोडाकोडीओ, हस्स-रदि-पुरिसवेदाणं दस सागरोवमकोडाकोडीयो हिदी होदि । एदाहि कम्महिदीहि समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए एकेका पयडी एत्तियमेत्ता होदि, समयभेदेण बद्धक्खंधाणं पि भेदादो। एत्थ वि सांतरबंधीणं पयडीणमसादावेदणीयकमो' वत्तव्यो । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं समयपबद्धट्ठदा कधं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता ? ण, मिच्छत्तकम्महिदिमेत्तसमयपबद्धाणं समत्त-सम्ममिच्छत्तेसु संकंताणं सेचीयभावेण सव्वेसिमुवलंभादो। तासिमबंधपयडीणं कधं समयपबद्धट्ठदा ? ण, मिच्छत्तसरूवेण बद्धाणं कम्मक्खंधाणं लद्धसमयपबद्धववएसाणं मोहनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३१ ।। यह सूत्र सुगम है। सत्तर, चालीस, बीस, पन्द्रह और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंको समयप्रव. द्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी मोहनीय कर्मकी एक एक प्रकृति है ॥३२॥ मिथ्यात्वकी स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सोलह कषायोंकी चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम; अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम; स्त्रीवेदकी पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम तथा हास्य, रति और पुरुष वेदकी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति है । इन कर्मस्थितियोंके द्वारा समयप्रवद्धार्थताको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो इतनी मात्र एक एक प्रकृति है, क्योंकि, कालके भेदसे बांधे गये स्कन्धोंका भी भेद होता है। यहाँपर भी सान्तरबन्धी प्रकृतियोंके क्रमको असाता वेदनीयके समान कहना चाहिये।। शंका-सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी समयप्रबद्धार्थता सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वके रूपमें संक्रमणको प्राप्त हुए मिथ्यात्व कर्मकी स्थितिप्रमाण समयप्रबद्ध निषेक स्वरूपसे वहाँ सभी पाये जाते हैं। शंका–उन अबन्ध प्रकृतियोंके समयप्रबद्धार्थता कैसे सम्भव है ? । समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व स्वरूपसे बांधे गये व समयप्रबद्ध संज्ञाको प्राप्त हुए १ प्रतिषु 'गुणिदात्रो' इति पाठः। २ ताप्रतौ -'वेदणीयरस' इति पाठः। ३ अप्रतौ 'सेचीयाभावेण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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