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________________ १, २, ५, १७.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्त [ ३१ अणंतरपुव्विल्लखेत्तं पक्खिदण विसेसहीणं दोजगपदरमेत्तेण । एवं सांतरकमेण खेत्तसामित परूवेदव्वं जाव आहुदूरयणिउस्सेहओगाहणाए विक्खंभेणूणपंचधणुसद-पणुवीसुत्तरुस्सेहओगाहणविक्खंभमेत्तकवाडखेत्तवियप्पा त्ति । पुणो एदेण सवजहण्णपच्छिमक्खेत्तेण सरिसमुत्तराहिमुहकवाडक्खेत्तं घेत्तण पुणो तत्तो एगेगपदसं विक्खंभम्मि ऊणं करिय कवाडं णेदूण खेत्तवियप्पाणं सामित्तं परूवेदव्वं जाव उत्तराभिमुहकेवलिजहण्णकवाडक्खेत्तं पत्तो त्ति । पुणो तदणंतरहेट्ठिमअणुक्कस्सखेत्तसामी महामच्छो तिष्णिविग्गहकंदएहि सत्तमपुढविमारणंतियसमुग्धादेण समुहदो सामी, अण्णरस कवाडजहण्णखेत्तादो ऊणरस अणुक्कस्सखेत्तस्स अणुवलंभादो । णवरि कवाडजहण्णक्खेत्तादो महामच्छरस उक्कस्समसंखेज्जगुणहीणं । एत्तो प्पहडि उवीरमवखेत्तवियप्पाणं घादिकग्माणं भणिदविहाणेण सामित्तपरूवणं कायव्वं । दंडगयकेवलिखेत्तट्ठाणाणि संखेज्जपदरंगुलमेत्ताणि महामच्छक्खेत्ततो णिवदंति त्ति पुध ण परूविदाणि । केवली दंडं करेमाणो सव्वो सरीरतिगुणबाहल्लेणं [ण ] कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिमुणबहल्लेण दंडं कुणइ ? पलियंकण णिसण्णकेवली। हैं। यह भी अव्यवहित पूर्वक क्षेत्रकी अपेक्षा दो जगप्रतर मात्रसे विशेष हीन है । इस प्रकार सान्तरक्रमसे साढ़े तीन रत्नि उत्सेध युक्त अवगाहनाके विष्कम्भसे हीन पांच सौ पच्चीस धनुष उत्सेध युक्त अवगाहनाके विष्कम्भ प्रमाण कपाटक्षेत्र के विकल्पों तक क्षेत्रस्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये। फिर इस सर्वजघन्य अन्तिम क्षेत्र के सदृश उत्तराभिमुख कपाटक्षेत्रको ग्रहण करके पश्चात् उससे विष्कम्भमें एक एक प्रदेश कम करके कपाटसमुद्घातको लेकर उत्तराभिमुख के.वलीके जघन्य कपाटक्षेत्रको प्राप्त होने तक क्षेत्रविकल्पोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । पुनः तीन विग्रहकाण्डको द्वारा सातवीं पृथिवीमें मारणान्तिकसमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त महामत्स्य तदनन्तर अधस्तन अनुत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी है, क्योंकि, उक्त जघन्य कपाटक्षेत्रसे हीन और दूसरा अनुत्कृष्ट क्षेत्र पाया नहीं जाता। विशेष इतना है कि जघन्य कपाटक्षेत्रसे महामत्स्यका उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यातगुणा हीन है। अब यहांसे आगे पूर्वोक्त घातिकमौके विधानसे उपरिम क्षेत्रविकल्पोंकी प्ररूपणा करन । चाहिये। दण्डगत केवलीके संख्यात प्रतरांगुल मात्र क्षेत्रस्थान चूंकि महामत्स्यक्षेत्रके भीतर आजाते हैं, अतः उनकी पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई है। दण्डसमुद्घातको करनेवाले सभी केवली शरीरसे तिगुणे बाहल्यसे उक्त समुद्घातको नही करते, क्योंकि, उनके वेदनाका अभाव है। शंका - तो फिर कौनसे केवली शरीरसे तिगुणे बाहल्यसे दण्डसमुद्घातको करते हैं ? ___समाधान- पल्यंक आसनसे स्थित केवली उक्त प्रकारसे दण्डसमुद्घातको करते हैं। १ अ-काप्रत्याः 'बाहिल्लेण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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