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________________ १, २, ६, ८.] वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे सामित्त [८९ ण्णिणो चेदि । तत्थ असणिणो उक्कस्सियं हिदि ण बंधंति त्ति जाणावणटुं सण्णिस्से त्ति णिद्दिढें । ते च सण्णिपंचिंदिया गुणट्ठाणभेएण चोद्दसविहा । तत्थ सासणादओ उक्कस्सियं हिदि ण बंधति त्ति जाणवण8 मिच्छाइट्ठिरसे त्ति णिद्दिष्टं । ते च मिच्छाइट्ठिणो पज्जत्तयदा अपज्जत्तयदा चेदि दुविहा । तत्थ अपज्जत्तयदा उक्कस्सियं द्विदि ण बंधति त्ति जाणावणहूँ सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदस्से त्ति भणिदं । पंचिंदियपज्जत्तमिच्छाइट्ठिणो कम्मभूमा अकम्मभूमा चेदि दुविहा। तत्थ अकम्मभूमा उक्कस्सहिदि ण बंधंति, पण्णारसकम्मभूमीसु उप्पण्णा चेव उक्कस्सट्टिीद बंधति त्ति जाणावणटुं कम्मभूमियस्स वा त्ति भणिदं । भोगभूमीसु उप्पण्णाणं व देव-णेरइयाणं सयंपहणगेंदपव्वदस्स बाहिरभागप्पहुडि जाव सयंभूरमणसमुद्दो त्ति एत्थ कम्मभूमिपडिभागम्मि उप्पणतिरिक्खाणं च उक्कस्सटिदिबंधपडिसेहे पत्ते तण्णिराकरण8 अकम्मभूमिस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा ति भणिदं । अकम्मभूमिस्स वा ति उत्ते देवाणेरइया घेत्तव्या । कम्मभूमिपडिभागस्स वा त्ति उत्ते सयपहणगिंदपव्वदस्स बाहिरे भागे समुप्पण्णाणं गहणं । संखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते अड्डाइज्जदीव-समुदुप्पण्णस्स कम्मभूमिपडिभागुप्पण्णस्स च गहणं । असंखेज्जवासाउअस्स वा ति उत्ते देव-णेरइयाणं गहणं, ण समयाहियपुवकोडिप्पहुडिउवरिमआउअतिरिवख-मणुस्साणं गहणं, पुवसुत्तेण तेसिं विहिदपडिसेहत्तादो । देवउनमें असंही पंचेन्द्रिय उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ संज्ञी पदका निर्देश किया है। वे संशी पंचेन्द्रिय गुणस्थानोंके भेदसे चौदह प्रकार हैं। उनमें सासादनसम्यग्दृष्टि. आदिक उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश किया है। वे मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो प्रकार हैं। उनमें अपर्याप्तक उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, इस बातके शापनार्थ 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ' ऐसा कहा है । पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि कर्मभूभिज और अकर्मभूभिज इस तरह दो प्रकारके हैं। उनमें अकर्मभूमिज उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, किन्तु पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए जीव ही उत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं; इस बातके ज्ञापनार्थ 'कर्मभूमिज' पदका निर्देश किया है। भोगभूमियों में उत्पन्न हुए जीवोंके समान देव-नारकियोंके तथा स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक इस कर्मभूमिप्रतिभागमें उत्पन्न हुए तिर्यंचोंके भी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका प्रतिषेध प्राप्त होनेपर उसका निराकरण करनेके लिये 'अकर्मभूमिजके अथवा कर्मभूमिप्रतिभागोत्पन्न जीवके' ऐसा कहा है । अकर्मभूमिज पदसे देव-नारकियोंका ग्रहण करना चाहिये । कर्मभूमिप्रतिभाग पदका निर्देश करनेपर स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें उत्पन्न हुए जीवोंका ग्रहण किया गया है। 'संख्यातवर्षायुष्क' कहनेपर अढ़ाई द्वीप-समुद्रोंमें उत्पन्न हुए तथा कर्मभूमिप्रतिभागमें उत्पन्न हुए जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'असंख्यातवर्षायुष्क' से देव-नारकियोंका ग्रहण किया गया है । इस पदसे एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि उपरिम आयुविकल्पोंसे संयुक्त तिर्यंचों व मनुष्योंका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, पूर्व सूत्रसे उनका छ. ११-१२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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