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________________ १, २, ४, १२२. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [ ३७७ मेत्तजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूण हिदो च, सरिसा । पुणो एदेण कमेण तिरिक्खाउअदव्वस्सुवरि भागहारमेत्ता विगलपक्खेवा वड्डावेदव्वा । एवं वड्विदूण हिदो च, अण्णेगो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय पुणो णिरयाउअं बंधमाणो एगसमयं पुव्विल्लजोगट्ठाणादो रूवूणभागहारमेत्तजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूण विदो च, सरिसा । एवं कमेण वड्ढावेदव्वं जाव जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारम्मि जेत्तिया सगलपक्खेवा अत्थि तेत्तियमेत्ती वड्डिदा त्ति । एवं वड्विदूण विदो च. पुणो अण्णगो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय पुणो जलचरेसुप्पज्जिय समऊणजहण्णबंधगद्धाए जहण्णजोगेण णिरयाउअं बंधिय पुणो दोसमयं जहण्णजोगेण चेव बंधिदण द्विदो च, सरिसा । संपहि इमं घेत्तण तिरिक्खाउअजहण्णदव्वस्सुवीर परमाणुत्तरादिकमेण भागहारमेत्तविगलपक्खेवा वड्ढावेदव्वा । एवं कदे रूवूणभागहारमेत्ता सगलपक्खेवा वडिदा होति । एवं वड्डिदृण हिदो च, अण्णेगो जहण्णजोग-जण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय बांधता हुआ पूर्व योगके ऊपर एक समयमें रूप कम भागहार मात्र योगस्थानों में अन्तिम योगस्थानसे बांधकर स्थित हुआ, दोनों सदृश हैं। __ अब इस क्रमसे तिर्यच आयुके द्रव्य के ऊपर भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य अन्धककालसे तिर्यंच आयुको बांधकर फिर नारक आयुको बांधता हुआ एक समयमें पूर्व योगस्थानसे रूप कम भागहार मात्र योगस्थानोंमें अन्तिम योगस्थानसे बांधकर स्थित हुआ, ये दोनों सदृश हैं। इस प्रकार क्रमसे जघन्य योगस्थानप्रक्षेपभागहारमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र बढ़ जाने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तियेच आयुको बांधकर फिर जलचरोंमें उत्पन्न होकर एक समय कम जघन्य बन्धककालमें जघन्य योगसे नारक आयुको बांधकर फिर दो समयमें जघन्य योगसे ही बांधकर स्थित हुआ, ये दोनों सदृश हैं। अब इसको ग्रहण कर तिर्यच आयुके जघन्य द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंको बढ़ाना चाहिये । ऐसा करनेपर रूप कम भागहार प्रमाण सकल प्रक्षेप बढ़ जाते हैं । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धक कालसे तिर्यच आयुको बांधकर अ-आ-काप्रतिषु तत्तियमेत' इति पाठः। २ प्रतिषु 'अण्णेगी जहण्णबंधगद्वाहि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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