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________________ ४, २, ४, ३२. ] यणमहाहियारे यणदव्वविहाणे सामित्तं विक्खंभा ૨૬ हारचद्गुणमेत्तायामदुगुणविक्खंभं है|दूण चेदि ||१६|| दो खंभायामाणं पुध पुध संवग्गं काऊण उव्वरिभागहारद्वगुणमत्त गोवुच्छविसेसेसु दोगो वुच्छविसेसे घेतू पक्खित्ते दो रिमणिसेगा उप्पज्जेति । ते चडिदद्धाणमेत्तचरिमणिसेगेसु पक्खिविय [९ | १९] चरिमणिसेगसलागाहि चरिमणिसगभागहारे ओवट्टिदे इच्छिदभागहारो होदि । वरि उव्वरिदेविसेसागमणङ्कं किंचूणं कायव्वं । संपहि एत्थ पुधद्वाणपरूवणा कीरदे । तं जहा दुगुणरूवाहियगुणहाणि - गच्छविसेसंकलणं ठविय | १८ | अट्ठहि उत्तरेहि य गुणिय उत्तरुण दुगुणादिं वग्गिय पक्खित्ते एत्तियं हादि १४५ || एसा करणिपैक्खवमूलं ||| एदाओ दो वि सीओ समयाविरोहण अच्छिदे गच्छो होदि + । एत्थ रूवं पक्खित्ते चडिदद्धाणं होदि । १४५ १ ४ २ दहादो गच्छादो संकलणाणयणविवरणं' उच्चदे । तं जहा गच्छम्म रिणद्धं रूवम्मि स्थित रहता है । फिर दोनों खण्डोंके विष्कम्भ और आयामका अलग अलग संवर्ग करके शेष बचे भागहारके दूने मात्र गोपुच्छविशेषोंमें से दो गोपुच्छविशेषोंको ग्रहण कर मिलानेपर दो अन्तिम निषेक उत्पन्न होते हैं । उन्हें जितने स्थान आगे गये हों उतने अन्तिम निषेकोंमें मिलाकर ९, १९ अन्तिम निषेकोंकी शलाकाओंसे अन्तिम निषेकके भागहारमें भाग देनेपर इच्छित भागहार होता है । इतनी विशेषता है कि शेष बचे विशेषोंको लानेके लिये कुछ कम करना चाहिये । अब यहां पृथक् अध्वान का कथन करते हैं । यथा - एक अधिक गुणहानिको दूना करके जो संख्या उत्पन्न हो उतने गोपुच्छविशेषका संकलन ( १८ ) स्थापित कर आठसे और उत्तरसे गुणित करके उसमें एक कम दूने आदि (एक) का वर्ग मिलाने पर इतना होता है १४५ । [ एक अधिक गुणहाणिका दुगुना ८ + १ = ९ ९ x २ = १८ । १८ x ८ = १४४; उत्तरका प्रमाण १, १४४ x १ = १४४; ( १ x २ = २; २ - १ = १ ) ; ( १ ) = १; १४४ + १ = १४५ । ] यह करणिप्रक्षेपका मूल है + १ [ पहिलके प्रक्षेपका वर्गमूल १ है जो १४५ के वर्गमूलकी ऋण राशि है । ] इन दोनों राशियोंको यथाविधि स्थापित करनेपर गुच्छ होता है १ । इसमें एक सिल।नेपर आगेका विवक्षित स्थान होता है । १ + २ अब इस गच्छके आधार से संकलन के लानेका विवरण कहते हैं । यथा[ यहां दो गच्छ स्थापित करना चाहिये और उनमें से एक गच्छ में एक मिलाकर आधा करना चाहिये । ] ऋण राशिके अर्ध भागको एक मेंसे घटा कर शेष धनके अर्ध भागको Jain Education International - - For Private & Personal Use Only [ १५१ १४५ ४ २ अप्रतौ ' पुधट्ठाण ' इति पाठः । ३ ताप्रतौ ' करणे ' इति पाठः ! ५ अ-काप्रत्योः ' सकलणाणयणविवराण, ताप्रतौ संकलणणविवरां । १ प्रतिषु ' उवरिद ' इति पाठः । ४ ताप्रतौ ' अ - ( त ) च्छिदे ' इति पाठः ( ? ) णे ' इति पाठः । छ. व. २०. www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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