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________________ ४, १, १३. ] कदिअणियोगद्दारे चोइस पुव्विपरूवणा [ ७१ पुवीणं जाणं णमो इदि उत्तं होदि । सेसहेट्ठिमपुव्वीणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, तेर्सि पिकदो चेव, तेहि विणा चोइसपुव्वाणुववत्तीदो चोदस पुव्वस्सेव णामणिद्देसं कादुण किमहं णमोक्कारो कीरदे ? विज्जाणुपवादस्स समत्तीए इव चोदसपुव्त्रसमतीए वि जिणवयणपच्चयदंसणा दो । चोद्दसपुव्वसमत्तीए को पच्चओ ? चोदसपुव्वाणि समाणिय रत्तिं काओसग्गेण दिस पहादसमए भवणवासिय वाणवेंतर - जोदिसिय - कप्पवासियदेवेहि कयमहापूजा संखकाहला - तूररव संकुला होदु । एदेसु दोसु ट्ठाणेसु जिणवयणपच्चओवलंभो । जिणवयणतं पडि सव्वंग - पुव्वाणि समाणाणि त्ति तेसिं सव्वेसिं णामणिद्देस काऊण णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, जिणवयणत्तणेण सव्वंग-पुव्वेहि सरिसत्ते संते वि विज्जाणुष्पवाद- लोगविंदुसाराणं महल्लत्तमत्थि, एत्थेव देवपूजेोवलंभादो । चोद्दसपुव्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि, तहि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एसो एदस्स विसेसो ।) चौदहपूर्वी कहे जाते हैं । उन चौदहपूर्वी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । शंका - शेष अधस्तनपूर्वियों को नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं, उनको भी नमस्कार किया ही है, क्योंकि, अधस्तन पूर्वोके विना चौदह पूर्व घटित ही नहीं होते । शंका - चौदह पूर्वका ही नामनिर्देश करके किसलिये नमस्कार किया जाता है । - समाधान - क्योंकि, विद्यानुप्रवाद की समाप्ति के समान चौदह पूर्व की समाप्तिमें भी जिनवचनपर विश्वास देखा जाता है । शंका - चौदह पूर्व की समाप्तिमें कौनसा विश्वास है ? समाधान - चौदह पूर्वौको समाप्त करके रात्रि में कायोत्सर्गसे स्थित साधुकी प्रभात समय में भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों द्वारा शंख, काहला और तूर्यके शब्द से व्याप्त महापूजा की जाती है । इन दो स्थानों में जिन वचनोंपर विश्वास पाया जाता है । शंका - जिनवचनकी अपेक्षासे सब अंग और पूर्व समान हैं, अतएव उन सबका नामनिर्देश करके नमस्कार क्यों नहीं किया गया ? समाधान - नहीं, जिनवचन रूपसे सब अंग और पूर्वोमें सदृशता के होनेपर भी विद्यानुप्रवाद और लोकविन्दुसारका महत्व है, क्योंकि, इनमें ही देवपूजा पायी जाती है । चौदह पूर्वका धारक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता और उस भवमें असंयमको भी नहीं प्राप्त होता, यह इसकी विशेषता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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