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________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा भाएण आवलियाए ओवट्टिदाए जहण्णोहिकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो होदि । एत्तिएण कालेण जं भूदं जं च भविस्सदि कज्जं तं जहण्णोहिणाणी जाणदि त्ति वुत्तं होदि । एदस्स कालो एत्तिओ चेव होदि ति कधं णव्वदे ? 'अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्जे त्ति' गाहासुत्तवयणादो णव्वदे । एवं जहण्णोहिकालपरूवणा कदा । ___ संपहि जहण्णोहिभावपरूवणं कस्सामो । तं जहा-- जमप्पणो जाणिददव्वं तस्स अणतेसु वट्टमाणपज्जाएसु तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपज्जाया जहण्णोहिणाणेण विसईकया जहण्णभावो । के वि आइरिया जहण्णदव्वस्सुवरिट्टिदरूव-रस-गंध-फासादिसव्वपज्जाए जाणदि त्ति भणंति । तण्ण घडदे, तेसिमाणंतियादो । ण च ओहिणाणमुक्कस्सं पि अणतसंखावगमक्खम, तहोवदेसाभावादो। दवट्ठियाणंतपज्जाए पच्चक्खेण अपरिच्छिदंतो ओही कधं पच्चक्खेण दव्वं परिछिंदेज्ज ? ण, तस्स पज्जायावयवगयाणंतसंखं मोत्तूण असंखेज्जपज्जायावयवविसिट्ठदव्वपरिच्छेदयत्तादो। तीदाणागयपज्जायाणं किण्ण भावववएसो? असंख्यातवें भागका आवलीमें भाग देनेपर जघन्य अवधिका काल आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । इतने मात्र कालमें जो कार्य हो चुका हो और जो होनेवाला हो उसे • जघन्य अवधिज्ञानी जानता है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। शंका-इसका काल इतना मात्र ही है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-'प्रथम काण्डकमें जघन्य क्षेत्र व काल क्रमशः घनांगुल और आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ' इस गाथासूत्रके कथनसे जाना जाता है। इस प्रकार जघन्य अवधिके कालकी प्ररूपणा की गई है। अब जघन्य अवधिके बिषयभूत भावकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैअपना जो जाना हुआ द्रव्य है उसकी अनन्त वर्तमान पर्यायोंमेंसे जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा विषयीकृत आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पर्यायें जघन्य भाव हैं। कितने ही आचार्य जघन्य द्रव्यके ऊपर स्थित रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायोंको उक्त अवधिज्ञान जानता है, ऐसा कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, वे अनन्त हैं। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जानने में समर्थ नहीं है, क्योंकि, वैसे उपदेशका अभाव है। शंका-द्रव्यमें स्थित अनन्त पर्यायोंको प्रत्यक्षसे न जानता हुआ अवधिशान प्रत्यक्षसे द्रव्यको कैसे जानेगा? समाधान-नहीं, क्योंकि, उक्त अवधिज्ञान पर्यायोंके अवयवों में रहनेवाली अनन्त संख्याको छोड़कर असंख्यात पर्यायावयवासे विशिष्ट द्रव्यका ग्राहक है । शंका-अतीत व अनागत पर्यायोंकी 'भाव' संज्ञा क्यों नहीं है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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