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________________ १५० छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा। एवं सत्तसु पुढवीसु । एवं देव-भवणवासियप्पहुडि जाव सहस्सारे ति । तिरिक्खगदीए तिरिक्खाणमोरालिय-वेउब्धियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघं । पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स ओरालिय-वेउब्बियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं ओरालियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । एवं मणुसअपज्जत्त-पंचिंदिय-तसअपज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-सव्वपुढविकाइय-सव्वआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयअपज्जत्ताणं तेसिं चेव सुहुमाणं तप्पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ताणं च । मणुसगदीए मणुसेसु ओरालियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । सेसपदा संखेज्जा । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वपदा संखेजा । णवरि मणुसिणीसु आहारपदं णत्थि । संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इस प्रकार सातों पृथिवियों में कहना चाहिये। इसी प्रकार देव और भवनवासी आदि सहस्रार कल्प तक देवोंमें कहना चाहिये। तिर्यग्गतिमें तिर्यों में औदारिक और वैक्रियिक शरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। पंचेन्द्रिय आदि तीन तिर्यंचोंके औदारिक व वैक्रियिक शरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? उक्त जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय व प्रस अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, बादर तेजकायिक और बादर वायुकायिक अपर्याप्त तथा उनके ही सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त एवं बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त व अपर्याप्तोंके कहना चाहिये। मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? उक्त जीव असंख्यात है। मनुष्योंमें शेष पद युक्त जीव संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब पद युक्त जीव संख्यात हैं । विशेष इतना है कि मनुष्यनियोंमें आहारक पर नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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