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________________ ३५] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. कदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । तेजइयस्स जहणिया संघादण-परिसादणकदी अणतगुणा । तस्सेव जहणिया परिसादणकदी विसेसाहिया । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादण परिसादणकदी विसेसाहिया । कम्मइयस्स जहपिणया परिसादणकदी अणंतगुणा । तस्सेव जहणिया संघादण-परिसदणकदी दुगुणा विसेसाहिया । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादणकदी सादिरेय. दुगुणा । एवं अप्पाबहुगं समत्तं । संपधि एत्थ अणियोगद्दाराणि देसामासियसुत्तसूइदाणि भणिस्सामो- तत्थ संतपरूवणदाए दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसण य । ओघेण ओरालिय वेउविय-आहारसरीराणमत्थि संघादणकदी परिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी च [ ३ ३ ३ ] । तेजा-कम्मइयसरीराणमत्थि परिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी च ३३ । णिरयगदीए परिशातनकृति असंख्यातगुणी है । इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। इससे तैजस शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति अनन्तगुणी है। इससे उसकी ही जघन्य परिशातनकृति विशेष अधिक है । इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशांतनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। इससे कार्मणशरीरकी जघन्य परिशातनकृति अनन्तगुणी है । इससे उसकी ही जघन्य संघातन परिशातनकृति दुगुणी विशेष अधिक है । इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है । इससे इसीकी उस्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति कुछ अधिक दुगुणी है। इस प्रकार अल्प-बहुत्व समाप्त हुआ। ____ अब यहां देशामर्शक सूत्रके द्वारा सूचित अनुयोगद्वारोंको कहते हैं - उनमें सत्प्ररूपणाके आश्रित निर्देश ओघ और आदेश रूपसे दो प्रकारका है । ओघकी अपेक्षा औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरोंके संघातनकृति, परिशातनकृति और संघातनपरिशातनकृति होती है । तैजल व कार्मण शरीरोंके परिशातनकृति और संघातन परिशातनकृति होती है। विशेषार्थ-यहां ऐसा जान पड़ता है कि औदारिक आदि तीन शरीरोंकी तीन तीन कृतियां होती हैं, इसलिये इसका १ १ १ ऐसा चिन्ह रहा है । और शेष दो शरीरोंकी दो दो कृतियां होती हैं, इसलिये इसके लिये ११ ऐसा चिन्ह रहा है । मूलमें जो चिन्ह है वह १ अ-आप्रत्योः ००.०० एवंविधा, काप्रतौ तु .... एवंविधा संदृष्टिरत्र । ++ + ++ ++++ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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