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________________ १, १, १६.] कदिअणियोगहारे कालाणुगमो [२५५ पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । पंचिंदियदुगस्स तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधतेणव्वहियं सागरोवमसदपुधत्तं । सोधम्मे माहिंदे पढमपुढवीए होदि चदुगुणिदं । बम्हादि आरणच्चुद पुढवीणं होदि पचगुणं ॥ १२२ ॥ एसा गाहा पंचिंदियट्ठिदि परुवेदि । सोधम्म-माहिंद-पढमपुढवीसु चदुक्खुत्तमुप्पण्णस्स बिदियादिछपुढवीसु बम्हलोगादिआरणच्चुददेवेसु च पंचवारमुप्पणस्स पंचिंदियट्टिदी सागरोवमसहस्समेत्ता १.१०००। पुव्वकोडिपुधत्तेणवहिया |९६ ।। पंचिंदियट्ठिदिं भमंतस्स एसा दिसा परूविदा, ण पुण एसो णियमो, अण्णेण वि पयारेण पंचिंदियट्ठिदी हिंडणं पडि संभवदंसणादो। काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे शुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा वे क्रमशः जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण व अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपम व सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक रहते हैं। सौधर्म, माहेन्द्र और प्रथम पृथिवीमें चार वार और प्रह्म कल्पसे लेकर भारणअच्युत कल्पों तथा द्वितीयादि पृथिवियोंमें पांच वार उत्पन्न होनेपर उक्त पंचेन्द्रिय काल पूर्ण होता है ॥ १२२॥ __ यह गाथा पंचेन्द्रिय कालकी प्ररूपणा करती है- सौधर्म, माहेन्द्र और प्रथम पृथिवीमें चार चार वार उत्पन्न हुए तथा द्वितीयादिक छह पृथिवियों व ब्रह्मलोकको आदि लेकर आरण-अच्युत कल्प तकके देवों में पांच वार उत्पन्न हुए जीवका पंचेन्द्रियकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व (९६) से अधिक एक हजार (सात पृथिवियों में- + १५+ ३५+ ५० + ८५ + ११० + १६५ = ४६४, सौधादि कल्पोंमें-८+ २८+ ५० + ७० + ८० +९० १००+११० = ५३६. ५३६+४६४ = १००० ) सागरोपम मात्र होता है। पंचेन्द्रियस्थितिको लेकर भ्रमण करनेवाले जीवके यह एक रीति बतलायी है, किन्तु सर्वथा ऐसा नियम नहीं हैं। क्योंकि, अन्य प्रकारसे भी पंचेन्द्रियस्थिति तक भ्रमण करना सम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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