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________________ १९४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. अंगति गच्छति व्याप्नोति त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायानित्यंगशब्दनिष्पत्तः । दव्वट्ठियणए अवलंबिदे पमाणमेक्कं चेव, अंगत्तं पडुच्च भेदाभावादो । ववहारणयं' पड्डच्च भण्णमाणे चउसट्ठी अंगसुदपमाणं होदि । कुदो ? चउसट्ठिअक्खरहि णिप्पण्णत्तादो । काणि चउसट्टिअक्खराइं ? वुचदे- कादि-हकारांता तेत्तीसवण्णा, विसज्जणिज्ज-जिब्भामूलीयाणुस्सारुवधुमाणिया चत्तारि, सरा सत्तावीस, हरस-दीह-पुधभेएण एक्केक्कम्हि सर तिणं सराणमुवलंभादो । एदे सव्वे वि वण्णा चउसट्ठी हवंति । अक्खरसंजोग' पडुच्च एक्कलक्ख-चउरासीदिसहस्सचदसद-सत्तसटि-कोडाकोडीयो चोदालीसलक्ख-तेहत्तरिसद-सत्तरिकोडीओ पंचाणउदिलक्खएक्कवंचाससहस्स-पण्णारसुत्तरछस्सदाणि च अंग्रसुदपमाणं होदि। १८४४६७४४०७३. ७०९५५१६१५। चउसट्ठि-अक्खराणमेग-दुसंजोगआदिभंगेहिंतो एत्तियमेत्तसंजोगक्खराणगुप्पत्तिदसणादों । पदं पडुच्च बारहुत्तरसदकोडि-तेसीदिलक्ख-पंचुत्तरअट्ठवंचाससहस्समेत्तमंग समस्त द्रव्य व पर्यायोको 'अंगति' अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है वह अंग है, इस प्रकार अंग शब्द सिद्ध हुआ है । द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर प्रमाण एक ही है, क्योंकि, अंगसामान्यकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। व्यवहारनयकी अपेक्षा कथन करनेपर आंगश्रुतका प्रमाण चौंसठ है, क्योंकि, वह चौंसठ अक्षरोसे उत्पन्न हुआ है। शंका-चौसठ अक्षर कौनसे हैं ? समाधान-क को आदि लेकर हकार तक तेतीस वर्ण, विसर्जनीय, जिह्नामूलीय, अनुस्वार और उपध्मानीय ये चार; सत्ताईस स्वर, क्योंकि हस्व, दीर्व और प्लुतके भेदसे एक एक स्वरमें तीन स्वर पाये जाते हैं । ये सब ही वर्ण चौसठ होते हैं । अक्षरसंयोगकी अपेक्षा करके अंगभुतका प्रमाण एक लाख चौरासी हजार चार सौ सड़सठ कोडाकोड़ी चवालीस लाख तिहत्तर सौ सत्तर करोड़, पंचानबै लाख इक्यावन हजार छह सौ पन्द्रह १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ होता है, क्योंकि, चौंसठ अक्षरोंके एक दो संयोगादि रूप भंगोंसे इतने मात्र संयोगाक्षरोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। पदकी अपेक्षा करके अंगश्रुतका प्रमाण एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठा १ प्रतिषु ' ववहारेणय' इति पाठः। २. जयध. १, पृ. ८९. तेत्तीस वेंजणाई सत्तावीसा सरा तहा भणिया। चगरि य जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाओ ॥ गो. जी. ३५१. ३ प्रतिपु 'सजोगं ' इति पाठः।। ४ जयथ. १, पृ. ८९. च उसद्विपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा । रूऊणं च कुए पुण सुदणागस्स खरा होति ॥ एकटु च च य छस्सत्यं च च मुण्ण-सत्त-सिय-सत्ता । सुण्णं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च ॥ गो. जी. ३५२-३५३. पणदस सोलस पण पण णव णभ सग तिणि चेव सगं । मुण्णं चउ-चउ-सग-क-चउ-चउ-अतुक्क सव्वसुदवण्णा ॥ अं. प. १, १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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