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________________ • ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे जीवस्स सचेयणत्त [११५ ग्गहणाणुववत्तीदो । ण चागमेण वि घेप्पइ, अपउरुसेयआगमाभावादो । णेदरेण वि, सव्वण्णुणा विणा तस्साभावादो इयरेयरासयदोसप्पसंगादो च। तदा णत्थि जीवो, सयलपमाणगोयराइक्कंतत्तादो त्ति द्विदजीवाभावो' मा होहिदि त्ति जीवो सचेयणो त्ति इच्छिदव्वो । किं च सचेयणो जीवो, अण्णहा णाणाभावप्पसंगादो । तं जहा- ण ताव णाणोवायाणकारणं जीवो, णिच्चेयणस्स तदुवायाणकारणत्तविरोहादो। अविरोहे वा आयासं पि तदुवायाणकारणं होज्ज, अमुत्तत्त-सव्वगयत्त णिच्चेयणत्तेहि विसेसाभावादो । ण च सद्दवायाणकारणत्तकओ विसेसो, तस्स सज्झसमाणत्तादो । ण चौवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो । तम्हा आयासादीहिंतो जीवस्स विसेसो अब्भुवगंतव्वो, कधमण्णहा जीवो चेव णाणस्सुवायाणकारणं होज्ज । सो वि चेयणं मोत्तूण को अण्णो विसेसो होज्ज, अण्णम्हि दोसुवलंभादो । रुवस्स पोग्गलदव्वं व जीवो चेय णाणस्सुवायाणकारणमिदि ण वोत्तुं जुत्तं, नहीं है । आगमसे भी आत्माका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, अपौरुषेय आगमका अभाव है। यदि पौरुषेय आगमसे उसका ग्रहण माना जावे तो वह भी नहीं बनता, क्योंकि, सर्वज्ञके विना पौरुषेय आगमका अभाव है, तथा [ पहिले जब सर्वज्ञ सिद्ध हो तब उससे पौरुषेय आगम सिद्ध हो और जब पौरुषेय आगम सिद्ध हो तब उससे सर्वज्ञकी सत्ता सिद्ध हो, इस प्रकार ] अन्योन्याश्रय दोषका प्रसंग भी आता है। इस कारण जीव है ही नहीं, क्योंकि, वह समस्त प्रमाणोंकी विषयतासे रहित है; इस प्रकार प्रसंगप्राप्त जीवका अभाव न हो, एतदर्थ ' जीव सचेतन है 'ऐसा स्वीकार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त जीव सचेतन है, क्योंकि, सचेतनताके विना ज्ञानके अभावका . प्रसंग आता है। वह इस प्रकारसे- जीव ज्ञानका उपादान कारण नहीं है, क्योंकि, चैतन्यसे रहित उसके ज्ञानोपादानकारणताका विरोध है । अथवा अचेतन होते हुए भी उसको ज्ञानका उपादान कारण मानने में यदि कोई विरोध नहीं माना जाय तो आकाश भी उसका उपादान कारण हो जावे, क्योंकि अमूर्तत्व, सर्वव्यापकता और अचेतनताकी अपेक्षा जीवसे आकाशमें कोई विशेषता नहीं है। यदि कहा जाय कि आकाश शब्दका उपादान कारण है, यही उसमें जीवसे विशेषता है, सो वह भी नहीं हो सकता, क्योंकि, शब्दोपादानकारणत्व रूप हेतु साध्यके ही समान असिद्ध है । और उपादानकारणके विना कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध है। इस कारण आकाशा. दिकोंकी अपेक्षा जीवके विशेषता स्वीकार करना चाहिये; अन्यथा जीव ही शानका उपादान कारण कैसे हो सकता है ? वह विशेषता भी चेतनताको छोड़कर और दूसरी कौनसी हो सकती है, क्योंकि, अन्य विशेषतामें दोष पाये जाते हैं। जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य रूपका उपादान कारण हैं, उसी प्रकार जाव भी ज्ञानका उपादान कारण है. ऐसा कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर रूपके समान १ प्रतिषु · ठिदं जीवाभावो' इति पाठ। २ प्रतिषु तहा ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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