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________________ औघेण इस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं बंधसामित्तपरूवणा [ ५९ मिच्छाइट्टिप्पाहुडि०' एदेण सुत्तावयवेण बंधद्धाणं गुणडाणगयसामित्तं च परूविदं । अणियट्टिबादर० ' एदेण बंधविणद्वाणपरूवणा कदा । एदेसिं तिण्णं चैवत्थाणं परूवणा कदा ति सामा सियसुत्तमेदं । तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे । तं जहा ३, २७. ] " " बंधोपुवच्छिदि पच्छा उदओ, अणियट्टिच रिमसम्रए बंधे वोच्छिण्णे सुहुमसांपराइय चरिमसमए उदयवोच्छेदुवलंभादो । लोभसंजलणस्स सोदय - परोदएहि बंधो, धुवोदत्ताभावाद । णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पच्चयपरूवणाए माणसंजलणभंगो | गइसंजुत्तसामित्तद्धाण-बंधवोच्छिष्णद्वाणपरूवणाओ सुगमाओ । मिच्छाइट्टिस्स चउविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो । हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २७ ॥ सुमं । 'मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिवादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं ' इस सूत्रांश द्वारा वन्धाध्यान और गुणस्थानगत बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है । 'अनिवृत्तिवादरकालके अन्तिम समयको प्राप्त होकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है ' इस सूत्रांश द्वारा बन्धव्युच्छित्तिस्थानका निरूपण किया गया है। चूंकि सूत्र द्वारा इन्हीं तीन अर्थोकी प्ररूपणा की गई है, अतएव यह देशामर्शक सूत्र है । इस कारण इसके द्वारा सूत्रित अर्थोका निरूपण करते हैं । वह इस प्रकार है संज्वलनलोभका बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योंकि, अनिवृत्तिकरण अन्तिम समयमें बन्धके व्युच्छिन्न होजानेपर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । संज्वलनलोभका स्वोदय- परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, उसके ध्रुवोदयत्वका अभाव है । बन्ध उसका निरन्तर है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । प्रत्ययोंकी प्ररूपणा संज्वलनमानके समान है । गतिसंयुक्तता, स्वामित्व, अध्वान और बन्धव्युच्छित्तिस्थानकी प्ररूपणायें सुगम हैं । मिथ्यादृष्टिके चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी प्रकृति है । शेष जीवोंके तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुवबन्धका अभाव है । हास्य, रति, भय और जुगुप्सा प्रकृतियोंका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ? ॥ २७ ॥ यह सूत्र सुगम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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