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________________ ५. छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ३२. पादादो । पुरिसवेदबंधो सांतरो.। कुदो ? मिच्छाइट्ठि-सासणेसु पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो । णिरंतरो वि, पम्म-सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुसमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सम्मामिच्छाइट्ठिआदिउवरिमगुणट्ठाणेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । एदासिं पचयपरूवणे कीरमाणे पुध पुध जे पच्चया मूलुत्तरणाणेगसमयभेयभिण्णा गुणट्ठाणाणं परुविदा ताणि गुणट्ठाणाणि तेहि पच्चएहि एदाओ पयडीओ बंधति ति पुधपरूवणा णत्थि, भेदाणुवलंभादो । अधवा पुरिसवेदो गयपच्चओ, अवगदवेदेसु तब्बंधाणुवलंभादो । कोधसंजलणो संजलणकसायस्स तिव्वाणुभागोदयपच्चओ, उवसमसेडिम्हि कोधचरिमाणुभागोदयादो अणंतगुणहीणेण वूणाणुभागोदएण कोधसंजलणस्स बंधाणुवलंभादो । मिच्छाइट्ठी सासणां च णिरयगईए विणा पुरिसवेदं तिगइसंजुत्तं बंधइ । णिरयगईए सह पुरिसवेदो किण्ण बज्झदे ? ण, अचंताभावेण पडिसिद्धत्तादो । सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी च दुगइसंजुत्तं, तेसिं णिरय तिरिक्खगईणं बंधाभावादो । संजदासंजदप्पहुडि उवरिमा प्रवबन्धी प्रकृतियोंके मध्यमें आया है। पुरुषवेदका बन्ध सान्तर है। इसका कारण यह कि मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानों में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है । वही बन्ध निरन्तर भी है, क्योंकि, पद्म एवं शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि उपरिम गुणस्थानों में भी निरन्तर बन्ध पाया जाता है। इन दोनों प्रकृतियोंके प्रत्ययोंका प्ररूपण करनेपर मूल, उत्तर तथा नाना व एक समय सम्बन्धी प्रत्ययोंके भेदसे भिन्न पृथक् पृथक् जो प्रत्यय जिन गुणस्थानोंके कहे गये हैं वे गुणस्थान उन प्रत्ययोंसे इन प्रकृतियोंको बांधते हैं, अतः इनकी पृथक् प्रत्ययप्ररूपणा नहीं है, क्योंकि, उनसे यहां कोई भेद नहीं पाया जाता । अथवा पुरुषवेद गतप्रत्यय है, अर्थात् उसका प्रत्यय ऊपर बता ही चुके हैं, क्योंकि, अपगतवेदियों में उसका बन्ध नहीं पाया लनक्रोधका बन्ध संज्वलनकषायके तीव्र अनुभागोदयनिमित्तक है, क्योंकि, उपशमश्रेणीमें क्रोधके अन्तिम अनुभागादयसे अथवा अनन्तगुणहानिसे हीन अनुभागोदयसे संज्वलनक्रोधका बन्ध नहीं पाया जाता। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना पुरुषवेदको तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं। शंका-नरकगतिके साथ पुरुषवेद क्यों नहीं बंधता ? समाधान नहीं बांधता, क्योंकि, वह अत्यन्ताभाव रूपसे प्रतिषिद्ध है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव है । संयतासंयतसे लेकर उपरिम जीव . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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